किशोर/नाबालिग भी है अग्रिम जमानत का हकदार, जघन्य अपराध करने वालों को अग्रिम जमानत मिल सकती है तो किशोर को क्यों नहीं?: पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट

SPARSH UPADHYAY

25 July 2020 3:52 PM GMT

  • P&H High Court Dismisses Protection Plea Of Married Woman Residing With Another Man

    Punjab & Haryana High Court

    पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने शुक्रवार (24 जुलाई) को सुनाये एक आदेश/मामले में, जिसमे एक किशोर युवक की माता द्वारा हाईकोर्ट में अग्रिम जमानत की याचिका दायर करते हुए अपने पुत्र के लिए अग्रिम जमानत की मांग की गयी थी, अग्रिम जमानत के उस आवेदन पर विचार करते हुए उसे अनुमति दे दी।

    दरअसल इस मामले में सिरसा की ऐलनाबाद तहसील के एक गांव में दो परिवारों के बीच हुए विवाद के बाद एफआइआर दर्ज की गई थी जिसमे मौजूदा किशोर का नाम भी शामिल था।

    न्यायमूर्ति एच. एस. मदान की एकल पीठ ने साथ ही यह टिप्पणी भी की कि,

    "यह निश्चित रूप से विधायिका का उद्देश्य नहीं हो सकता कि विधि से संघर्षरत किशोर को पहले गिरफ्तार किया जाए और फिर किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष पेश किया जाए, इस प्रक्रिया में एक किशोर को राहत से इंकार किया जाए, जो राहत अन्य व्यक्तियों के लिए उपलब्ध है, जिन पर जघन्य अपराध का आरोप है।"

    याचिकाकर्ता/अभियुक्त की ओर से पेश दलील

    याचिकाकर्ता/अभियुक्त के लिए पेश वकील ने अदालत में यह दलील दी कि 'किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015' [Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2015] के अंतर्गत, गिरफ्तारी पूर्व जमानत (अग्रिम जमानत) देने के लिए याचिका दायर करने पर कोई विशिष्ट रोक नहीं लगायी गयी है।

    उनकी मुख्य दलील यह थी कि उक्त अधिनियम की धारा 10 और 12 नियमित जमानत देने से संबंधित है और गिरफ्तारी पूर्व जमानत से सम्बंधित नहीं है, इसलिए यह कहना कि जमानत मांगने के लिए जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड के समक्ष एक किशोर/याचिकाकर्ता को पेश होना होगा, यह उचित नहीं होना चाहिए।

    याचिकाकर्ता/अभियुक्त/किशोर के लिए वकील ने आगे यह तर्क दिया है कि यद्यपि कुछ मामलों में इस न्यायालय ने यह विचार किया है कि गिरफ्तारी पूर्व जमानत के सम्बन्ध में जुवेनाइल (किशोर) की याचिका को बरकरार नहीं रखा जा सकता है परन्तु, उन्होंने पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के उन कुछ मामलों का भी जिक्र किया जहाँ यह राहत अदालत द्वारा याचिकाकर्ता को दी गयी थी।

    अदालत का मत

    अदालत ने अपने फैसले में इस बात पर जोर दिया कि किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, एक सामाजिक कल्याण कानून है, जिसे बच्चों के कल्याण का ख्याल रखने और उन्हें कठोर अपराधियों में बदलने से बचाने के लिए अधिनियमित किया गया था।

    अपने आदेश में अदालत द्वारा यह भी कहा गया कि इस कानून का मूल उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि 18 साल से कम उम्र के किशोर, जो कभी कभार अपराध करके विधि से संघर्षरत (conflict with law) हो जाते हैं उन्हें इस तरह से और ऐसे वातावरण के तहत ट्राई किया जाए, जो उन्हें सुधार के रास्ते पर ले जा सकता है, बजाय इसके कि इन किशोरों को जेल में बंद अपराधियों के साथ घुलने-मिलने की इजाजत दी जाए जिससे ये खुद कठोर अपराधियों में परिवर्तित हो जाएंं।

    अदालत ने अपने आदेश में मुख्य रूप से यह देखा कि,

    "(इस कानून का) यही उद्देश्य है कि विधि से संघर्षरत जुवेनाइल (किशोर) को अलग अवलोकन घरों में रखा जाये बजाय उन्हें जेल में डालने के। यहां तक कि अगर कानून के साथ संघर्षरत एक किशोर द्वारा कुछ अपराध किया गया है, तो निवारक सजा देने के बजाय, उसके पुनर्वास और सामाजिक एकीकरण की मांग की जाती है। यदि यह विशेष अधिनियम, एक विशेष प्रावधान (अग्रिम जमानत) के संबंध में मौन है तो उसे सामान्य कानून यानी दण्ड प्रक्रिया संहिता, (1973) के साथ पढ़ा जाना चाहिए। एक अनुमान निश्चित रूप से आकर्षित नहीं किया जा सकता है कि गिरफ्तारी पूर्व जमानत (अग्रिम जमानत) की मांग करने से किशोर को दूर रखने का विधायिका का इरादा है।"

    आगे अदालत ने यह देखा कि यदि ऐसा होता (कि जुवेनाइल से सम्बंधित जेजे कानून, किशोर को अग्रिम जमानत दिए जाने पर रोक लगाता है) तो उस संबंध में इस कानून में एक विशिष्ट प्रावधान किया गया होता। जैसा कि 'अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989' [The Scheduled Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act, 1989] की धारा 18 में किया गया है, जो धारा स्पष्ट रूप से किसी व्यक्ति के, जिसने उक्त अधिनियम के तहत अपराध किया है, गिरफ्तारी पूर्व जमानत देने के अधिकार पर रोक लगाती है।

    अदालत ने इस बात पर भी गौर किया कि किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2015, यह प्रदान करता है कि किशोर की परिभाषा के भीतर आने वाले 18 वर्ष से कम आयु के किशोरों, जो कानून के साथ संघर्षरत पाए जाते हैं, उनके साथ भी दया और करुणा के साथ व्यवहार किया जाना चाहिए।

    यही नहीं, अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले, हेमा मिश्रा बनाम यू. पी. राज्य एवं अन्य, 2014 (1) CCR 385 मामले का भी जिक्र किया जिसमे यह देखा गया था कि चूँकि उत्तर-प्रदेश राज्य में Cr.P.C. के तहत अग्रिम जमानत देने के लिए कोई प्रावधान मौजूद नहीं है (हालाँकि अब कानून अलग है और उत्तर प्रदेश राज्य में सामान्य तौर पर अग्रिम जमानत हाईकोर्ट से ली जा सकती है) लेकिन फिर भी उच्च न्यायालय के पास उचित मामलों में रिट अधिकार क्षेत्र के तहत अग्रिम जमानत देने की क्षमता है।

    आगे अदालत ने अपना आदेश सुनाते हुए कहा कि,

    "याचिकाकर्ता को आज से सात दिनों के भीतर अन्वेषण अधिकारी से संपर्क करके अन्वेषण में शामिल होने और हर प्रकार का सहयोग प्रदान करने के निर्देश दिए जाते हैं। याचिकाकर्ता को अपने पासपोर्ट को, यदि उसके पास है तो, जांच अधिकारी के समक्ष सौंपना होगा अन्यथा उस संबंध में हलफनामा प्रस्तुत करना होगा। यदि इस बीच, उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है, तो उसे अन्वेषण अधिकारी/गिरफ्तार अधिकारी की संतुष्टि के साथ जमानत पर रिहा कर दिया जाए।"

    पूर्व के कुछ उल्लेखनीय मामले

    गौरतलब है कि राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर पीठ ने 28-अगस्त-2019 को सुनाये एक आदेश में यह माना था कि एक किशोर जिसे अपने गिरफ्तार होने की आशंका है वह सीआरपीसी की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत की अर्जी दायर कर सकता है।

    इससे पहले, केरल उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आर. नारायण पिसराडी ने इस सवाल का जवाब दिया था कि कानून के साथ संघर्ष में एक किशोर अग्रिम जमानत के लिए आवेदन कर सकता है क्योंकि किशोर न्याय (जेजे) अधिनियम में ऐसा कुछ भी नहीं है जो उसे ऐसा करने से रोकता हो।

    हालाँकि, मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय ने अपने मार्च 2019 के एक आदेश में यह माना था कि एक किशोर सीआरपीसी की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत के लिए आवेदन दायर करने का हकदार नहीं है।

    इससे पहले वर्ष 2017 में भी के. विग्नेश बनाम राज्य के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय (जस्टिस एस. नागमुत्थु एवं जस्टिस अनीता सुमंत की पीठ) ने यह फैसला सुनाया था कि एक किशोर को अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती है क्योंकि जेजे कानून, पुलिस को केवल किशोर को केवल 'apprehend' करने को कहता है लेकिन पुलिस को एक किशोर को 'गिरफ्तार' करने का अधिकार कानून में नहीं दिया गया है।

    इसी क्रम में मद्रास उच्च न्यायालय ने यह माना था कि कानून के साथ संघर्ष में किशोर के मामले में गिरफ्तारी का कोई डर नहीं हो सकता है, और यह कानूनी स्थिति किशोर के लिए अग्रिम जमानत लेने की आवश्यकता को खत्म करती है।

    आदेश की प्रति डाउनलोड करेंं



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