सीएए के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले लोगों से सार्वजनिक संपत्त्ति के नुकसान की वसूली करने के ट्रायल कोर्ट के आदेश पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रोक लगाई
LiveLaw News Network
8 March 2020 2:20 PM IST
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने शुक्रवार को अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट, बिजनौर के 24 फरवरी को दिए गए एक आदेश पर रोक लगा दी, जिसमें 4 व्यक्तियों को 19 दिसंबर, 2019 को लखनऊ में सीएए के विरोध प्रदर्शनों के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोप के बाद नुकसान की भरपाई का भुगतान करने का निर्देश दिया गया था।
न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति दीपक वर्मा की खंडपीठ ने कहा कि हाईकोर्ट की एक समन्वय पीठ पहले ही मोहम्मद फैजान बनाम उत्तर प्रदेश और अन्य, Crl. Misc. WP No. 1927/2020 के मामले में इसी प्रकार की याचिका पर सुनवाई कर रही है और इसमें राज्य सरकार से जवाब मांगा है।
इस पृष्ठभूमि में बेंच ने वर्तमान मामले को मोहम्मद फैजान बनाम उत्तर प्रदेश और अन्य के मामले के साथ जोड़ दिया है। फैजान (सुप्रा) और इस मामले को संयुक्त सुनवाई के लिए 20 अप्रैल को सूचीबद्ध किया है।
अदालत ने आदेश दिया,
"इस कोर्ट की एक कोऑर्डिनेट बेंच मोहम्मद फैजान बनाम उत्तर प्रदेश और अन्य, Crl. Misc. WP No. 1927/2020 मामले में सुनवाई कर रही है और इसमें राज्य से जवाब मांगा गया है और यह मामला रिट पिटीशन (सिविल) 2020 नंबर 55 में सुप्रीम कोर्ट में भी है।
हम इस मामले को Misc. Writ (Civil) No.55 of 2020 से जोड़ने के लिए उपयुक्त मानते हैं और राज्य-उत्तरदाताओं को अपने संबंधित शपथ पत्र दाखिल करना होंगे। इस याचिका को Crl. Misc. WP No. 1927/2020 के साथ 20 अप्रैल, 2020 को सूचीबद्ध करें। अगली तारीख तक पक्षकार अपने हलफनामों का आदान-प्रदान करेंगे। "
स्थायी रूप से, पीठ ने बीच में एडीएम के आदेश के संचालन पर रोक लगा दी है। पीठ ने कहा,
"सूचीबद्ध होने की अगली तारीख तक, याचिकाकर्ता से अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट (एफ / आर) बिजनौर द्वारा पारित दिनांक 24.02.2020 के आदेश के अनुसार कोई भी वसूली नहीं की जाएगी।"
याचिकाकर्ताओं ने एडीएम के आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था जिसमें कहा गया था कि इस तरह के नोटिसों की वैधानिकता सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पहले से ही सवालों के घेरे में है।
कथित तौर पर, 19 दिसंबर, 2019 को लखनऊ और राज्य के अन्य हिस्सों में हुए विरोध प्रदर्शनों में सरकारी और निजी संपत्ति को कई नुकसान पहुंचाया गया जिसमें सरकारी बसें, मीडिया वैन, मोटर बाइक, आदि भी शामिल थी।
इसके बाद राज्य सरकार ने कथित तौर पर विरोध प्रदर्शन में शामिल लोगों के लिए यूपी ने Prevention of Damage to Public Property Act, 1984 की धारा 3 और 4 के तहत कारण बताओ नोटिस जारी किए थे। सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही का हवाला देते हुए हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने इन नोटिसों को चुनौती देने वाली एक याचिका को खारिज कर दिया था।
उत्तर प्रदेश के जिला प्रशासन द्वारा जारी इस तरह के वसूली करने के नोटिस को रद्द करने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है।
वकील परवेज आरिफ टीटू द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में कहा गया है कि उच्च न्यायालय का उक्त आदेश सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वत: संज्ञान लेकर दिए गए " डेस्टरेक्शन ऑफ पब्लिक एंड प्राइवेट प्रॉपर्टीज बनाम सरकार (2009) 5 SCC 212 में पारित दिशानिर्देशों का उल्लंघन है।
उस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए दिशा-निर्देश जारी किए थे कि हिंसा के कारण इस तरह के हर्जाने की वसूली के लिए विधानमंडल की अनुपस्थिति में, उच्च न्यायालय अपने दम पर सार्वजनिक संपत्ति को बड़े पैमाने पर नुकसान की घटनाओं का संज्ञान ले सकता है और मुआवजे की जांच और हर्जाना देने के लिए मशीनरी की स्थापना कर सकता है।
दिशानिर्देशों में कहा गया है कि हर्जाने या जांच की देयता का अनुमान लगाने के लिए एक वर्तमान या सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को दावा आयुक्त के रूप में नियुक्त किया जा सकता है। ऐसा कमिश्नर हाईकोर्ट के निर्देश पर सबूत ले सकता है। एक बार देयता का आकलन करने के बाद इसे हिंसा के अपराधियों और घटना के आयोजकों द्वारा वहन किया जाएगा।
याचिकाकर्ता ने दावा किया है कि उच्च न्यायालय का आदेश सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विपरीत है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने हर राज्य के उच्च न्यायालयों पर अभियुक्तों से नुकसान और वसूली के आकलन का जिम्मा सौंपा था जबकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसमें दिशा-निर्देश दिए हैं कि राज्य सरकार इन प्रक्रियाओं को शुरू करे। उनके अनुसार इसके गंभीर निहितार्थ हैं। उन्होंने कहा, "न्यायिक निरीक्षण / न्यायिक सुरक्षा एक प्रकार का सुरक्षा तंत्र है, जो मनमानी कार्रवाई के खिलाफ है। इसका मतलब है कि राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी अपने राजनीतिक विरोधियों या अन्य लोगों द्वारा विरोध के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है।"
याचिकाकर्ता ने आगे कहा है कि नोटिस बहुत ही मनमाने तरीके से जारी किए गए हैं, क्योंकि जिन लोगों को नोटिस भेजे गए हैंं ,उनके खिलाफ एफआईआर या कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं किया गया है। याचिका में खुलासा किया गया है कि पुलिस ने 94 साल की उम्र में 6 साल पहले मरने वाले व्यक्ति बन्ने खान के खिलाफ मनमाने तरीके से नोटिस जारी किया था।
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