कॉरपोरेट दिवाला प्रस्ताव की मंजूरी एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत दायर मुकदमा समाप्त करने का आधार नहीं : मद्रास हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
25 Jan 2020 2:45 PM IST
मद्रास हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में व्यवस्था दी है कि दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता, 2016 (आईबीसी) की धारा 31 के तहत किसी कंपनी को दिवालिया घोषित करने की प्रकिया की मंजूरी ऋणी कंपनी और उसके अधिकारियों के खिलाफ नेगोशिएबल इंस्ट्रमेंट (एनआई) एक्ट, 1881 की धारा 138 के अंतर्गत शुरू किये गये मुकदमे को समाप्त करने का आधार नहीं हो सकती।
न्यायमूर्ति जी आर स्वामीनाथन की एकल पीठ ने कहा,
"दिवाला प्रक्रिया का निर्णय करने वाले अधिकारी/अपीलीय न्यायाधिकरण द्वारा भले ही कंपनी को दिवालिया घोषित करने की योजना मंजूर कर ली गयी हो, लेकिन कोई भी उपबंध आपराधिक मामलों के निर्धारण करने वाली अदालत का दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के प्रावधानों के तहत मुकदमा चलाने और निपटाने का अधिकार नहीं छीन सकता।"
यह टिप्पणी सीआरपीसी की धारा 482 के अंतर्गत दायर अर्जी पर की गयी है, जिसमें कानून की नजर में एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत मुकदमे को गैर-कानूनी ठहराने और आईबीसी के तहत उनके उपायों को आगे बढ़ाने के लिए शिकायतकर्ता-प्रतिवादी को निर्देश देने का अनुरोध किया गया था।
याचिकाकर्ता-कंपनी आईबीसी की धारा 31 के तहत कॉरपोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया के अंतर्गत चली गयी थी तथा चेक बाउंस करने की शिकायत लंबित होने के दौरान संहिता की धारा 14 के तहत पाबंदी लग गयी थी।
दलीलें
याचिकाकर्ता ने कोर्ट में दलील दी थी कि चूंकि दिवाला प्रक्रिया से जुड़े विशेषज्ञों ने परिसम्पत्तियों और देनदारी सहित कंपनी का सम्पूर्ण प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया था। इस वजह से उसकी पहुंच अब किसी भी दस्तावेज तक नहीं है, इसलिए वह मामले को जारी नहीं रख सकता था।
उन्होंने दलील दी कि आईबीसी अन्य कानूनों से अधिक प्रभावी स्वयं में पूर्ण अधिनियम है। इसलिए चेक बाउंस संबंधी मुकदमे को जारी रखना कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा। उन्होंने आगे कहा कि दिवाला समाधान योजना स्पष्ट तौर पर निर्धारित करता है कि दिवाला समाधान प्रक्रिया शुरू होने की तारीख से पहले कंपनी की ओर से जारी सभी बकाया नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट (चेक) समाप्त हो जायेंगे तथा कंपनी और इसके मौजूदा कर्मचारियों की देनदारी समाप्त हो जायेगी। साथ ही सभी कानूनी कार्यवाही स्थायी तौर पर एवं बिना शर्त समाप्त हो जायेंगी।
निष्कर्ष
कोर्ट ने कहा कि एनआई अधिनियम की धारा 138 का मुख्य उद्देश्य वाणिज्यिक लेनदेन की विश्वसनीयता को सुरक्षित रखना है और सार्वजनिक हित में चेक जारी करने वाले के खिलाफ एक व्यक्तिगत आपराधिक उत्तरदायित्व सुनिश्चित करके चेक बाउंस होने से रोकना है। इसलिए भले ही दिवाला समाधान योजना को मंजूरी दे दी गयी थी एवं आईबीसी की धारा 31 के तहत यह कॉरपोरेट ऋणदाता, उसके कर्मचारियों, सदस्यों, लेनदारों, गारंटरों और अन्य हितधारकों के लिए बाध्यकारी बना दिया गया, लेकिन एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत आपराधिक मुकदमा समाप्त नहीं होगा।
इस मामले में जेआईके इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम अमरलाल वी जुमानी (2012) 3 एससीसी 255 के फैसले पर भरोसा जताया गया था।
हालांकि कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि देनदार कंपनी दिवाला समाधान प्रक्रिया के दायरे में आती है तो इसके पूर्व प्रबंध निदेशक या निदेशक कंपनी का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। "इसलिए, केवल दिवाला समाधान से जुड़े विशेषज्ञ ही दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता के तहत मुकदमा लंबित होने के दौरान आरोपित कंपनी का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं।"
यह भी कहा गया कि आईबीसी के तहत समाधान प्रक्रिया समाप्त हो जाती है और यदि देनदार कंपनी भंग नहीं होती तथा पूर्व निदेशक एवं अधिकारी आपराधिक मुकदमों में कंपनी का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते, तो ऐसी स्थिति में नया प्रबंधन ऐसे मुकदमों में कंपनी की ओर से प्रतिनिधित्व करने के लिए उचित इंतजाम करेगा।
कोर्ट ने कहा, "दिवाला समाधान योजना समाप्त होने के बाद, या तो कंपनी को भंग किया जा सकता है या कंपनी का अस्तित्व बनाये रखने के लिए इसे नये प्रबंधन को सौंपा जा सकता है। जब कोई नया प्रबंधन कार्यभार संभालेगा, तो उसे कंपनी के प्रतिनिधित्व के लिए इंतजाम करना होगा।"
कोर्ट ने आगे कहा कि जहां कंपनी भंग हो जाती है, वहां एनआई अधिनियम के तहत मुकदमे समाप्त हो जायेंगे। हालांकि, पूर्व निदेशकों और पदाधिकारियों को इसकी आड़ में छुपने की अनुमति नहीं मिलेगी।
कोर्ट ने 'अनीता हाडा बनाम गॉडफादर ट्रेवल्स एंड टुअर्स (प्रा) लिमिटेड, (2012)5 एससीसी 661' के मामले में दिये गये फैसले पर भरोसा जताते हुए कहा,
"यदि दिवाला समाधान प्रक्रिया के तहत कंपनी भंग हो जाती है, तो निश्चित तौर पर इसके खिलाफ मुकदमे समाप्त हो जाएंगे, लेकिन फिर भी उसके पूर्व निदेशक इस स्थिति का फायदा नहीं उठा सकते।
जहां एनआई अधिनियम की धारा 138 के तहत मुकदमे पहले से ही शुरू हो चुके थे और इसके लंबित होने के दौरान ही कंपनी भंग हो गयी तो इसके निदेशक और अन्य अभियुक्त कंपनी भंग होने का हवाला देकर बच नहीं सकते। जो भंग हुई है वह कंपनी है, न कि नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट, 1881 की धारा 141 के तहत अभियुक्त का व्यक्तिगत सजा संबंधी उत्तरदायित्व।"
मुकदमे का ब्योरा :
मुकदमे का नाम : अजय कुमार बिश्नोई बनाम मेसर्स टैप इंजीनियरिंग
केस नं. क्रिमिनल ओपी (एमडी) सं. 34996/2019
कोरम : जस्टिस जी आर स्वामीनाथन
वकील : नित्येश एवं वैभव (याचिकाकर्ता के लिए)
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