जमानत के लिए एक ऐसी शर्त लगाना,जिसका अनुपालन संभव न हो,जमानत को पूरी तरह से कल्पना बना देती है : पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

3 July 2020 4:30 AM GMT

  • P&H High Court Dismisses Protection Plea Of Married Woman Residing With Another Man

    Punjab & Haryana High Court

    ‘‘जमानत देने या जमानत देने से इनकार करने के लिए जूडिशस्नेस का उपयोग विवेकपूर्ण तरीके से किया जाना चाहिए। जमानत देते समय ऐसी शर्तें लगाना,जिनका अनुपालन अक्षम हो, जमानत को एक पूर्ण कल्पना बना देती है।’’

    पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने माना है कि किसी अदालत द्वारा लगाई गई जमानत की शर्तें इतनी दुष्कर भी नहीं होनी चाहिए कि वे ''जमानत के लिए घातक'' साबित हो जाएं।

    न्यायमूर्ति अरुण मोंगा की पीठ ने कहा,

    ''जमानत के लिए लगाई गई शर्त या उस पर लगाए गए बोझ या जिम्मेदारी ,ऐसे नहीं होने चाहिए कि वह जमानत के अर्थ को ही पराजित कर दे। किसी को जमानत देने का भ्रम देने के बजाय जमानत को अस्वीकार ही किया जा सकता है।''

    पृष्ठभूमि

    पीठ ने यह अवलोकन एक आपराधिक आवेदन पर सुनवाई के दौरान किया है। इस मामले में एक याचिकाकर्ता ने जमानत के आदेश में लगाई गई जमानत की शर्तों को चुनौती दी थी। जमानत के आदेश में शर्त लगाई गई थी कि उसे व्यक्तिगत बांड के बदले 100 करोड़ रुपये की किसी भी अचल संपत्ति/संपत्ति के विवरण और दस्तावेजों प्रस्तुत करने होंगे। यह शर्त उसके व सह-आरोपियों के खिलाफ लंबित सभी मामलों के संबंध में लगाई गई थी।

    याचिकाकर्ता को 67 प्राथमिकियों के संबंध में गिरफ्तार किया गया था, जो उसके खिलाफ जालसाली, धोखाधड़ी आदि धाराओं के तहत दर्ज की गई थी। उसने केवल एक प्राथमिकी के संबंध में जमानत याचिका दायर की थी। हालांकि, जमानत देते समय, अदालत ने प्रत्येक प्राथमिकी पर विचार किया और पाया कि लगभग 300 करोड़ की धोखाधड़ी का मामला बनता है। उसी के अनुसार अदालत ने जमानत के लिए उक्त शर्त लगा दी।

    न्यायालय ने निम्नलिखित मुद्दों के तहत अपने निष्कर्षों को दर्ज किया-

    1) क्या एक ऐसी दुष्कर या कठोर शर्त लगाई जा सकती है,जिसका अनुपालन अक्षम हो या संभव न हो ?

    इसका नकारात्मक में जवाब देते हुए पीठ ने कहा कि जमानत देने के लिए लगाई शर्त ऐसी नहीं होनी चाहिए कि वह स्वयं ही जमानत के आदेश को ''शून्यता'' के रूप में प्रस्तुत कर दें।

    पीठ ने कहा कि-

    ''स्वतंत्रता और कानून को एक साथ जाना चाहिए। कानून एक संदिग्ध व्यक्ति की स्वतंत्रता को कम करने की अनुमति देता है, लेकिन कानून के तहत इस शक्ति का उपयोग करने का उद्देश्य, एक सभ्य समाज में बड़े पैमाने पर लोगों को भविष्य के नुकसान या अहित से बचाना है, जिसमें शिकायतकर्ता (एस) भी शामिल हैं। इसलिए उन विषय के आधार पर स्वतंत्रता पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है,जिनकी परिकल्पना कानून में नहीं की गई है या फिर इक्विटी पर एक निरंकुश दृष्टिकोण अपनाते हुए स्वतंत्रता पर ऐसी शर्तें लगा देना,जिनका अनुपालन अक्षम हो,जैसा कि वर्तमान मामले में किया गया है।''

    यह भी पाया गया कि अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश में सिक्योरटी के लिए लगाई गई ''भारी शर्तें''अनुचित और अतिकठोर थी। इस बात को ध्यान में नहीं रखा गया कि याचिकाकर्ता (26 महीने से ) अभी भी जेल में बंद है,जबकि उसे एक साल पहले जमानत का एक अनुकुल आदेश प्राप्त हो गया था। यह तथ्य ''उक्त शर्त का पालन करने में उसकी अक्षमता'' का पर्याप्त संकेत था।

    अदालत ने कहा कि

    ''जमानत की उक्त कठोर शर्त का अनुपालन करने में याचिकाकर्ता की अक्षमता के कारण उसे आगे भी हिरासत में रखना अनुचित होगा और उसे खुद का बचाव करने में भी अत्यधिक कठिनाई होगी।''

    अदालत ने जमानत की संबंधित शर्त में संशोधन कर दिया है और याचिकाकर्ता पर तीन करोड़ रुपये का व्यक्तिगत बांड व एक जमानती पेश करने की शर्त लगाई है।

    2) क्या एक विशेष प्राथमिकी में जमानत देते समय किसी अभियुक्त पर कठोर जमानत की शर्त लगाने के उद्देश्य से कोई अदालत अन्य ऐसी सभी प्राथमिकी को क्लब कर सकती है,जो असल में उसके समक्ष विचाराधीन नहीं हैं ?

    एकल पीठ ने कहा कि एक जमानत देने वाली अदालत ऐसे मामलों को क्लब नहीं कर सकती जो उसके समक्ष विचाराधीन नहीं हैं। पीठ ने कहा कि-

    ''मेरी राय में, याचिकाकर्ता के लिए आवश्यक बांड की राशि और जमानत के लिए लगाई गई शर्तों का निर्धारण 4 मार्च 2018 को दर्ज एफआईआर नंबर 113 से संबंधित तथ्यों और परिस्थितियों की योग्यता के आधार पर किया जाना चाहिए। जो पूरी तरह से अन्य मामलों से स्वतंत्र और अलग हो।''

    अदालत ने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्ता ने मामलों को क्लब करने के लिए उचित आदेश मांगे थे, ऐसी स्थिति में समग्र दृष्टिकोण अपनाते हुए एक ऐसा आदेश पारित किया जा सकता था, जिसके तहत सभी मामलों के शिकायतकर्ताओं के अधिकारों को सुरक्षित करने के लिए 100 करोड़ रुपये की सिक्योरटी मांगी जा सकती थी। हालाँकि इस मामले में जमानत सिर्फ एक एफआईआर के संबंध में मांगी गई थी। ऐसे में सिर्फ उस एफआईआर में लगाए गए आरोपों पर ही विचार करने की आवश्यकता है।

    पीठ ने कहा कि-

    ''अगर एक एफआईआर में जमानत की शर्त लगाने के उद्देश्य से सभी एफआईआर को क्लब करने के लिए स्टेट काउंसिल की तरफ से दिए गए तर्क को स्वीकार कर लिया जाता है, तो यह जमानत कोर्ट को ऐसी शक्तियां प्रदान करने के समान होगा जो अन्यथा सीआरपीसी में शामिल नहीं हैं। एक जमानत पर सुनवाई करने वाली अदालत उन मामलों में शक्तियों को ग्रहण या स्वीकार नहीं कर सकती है,जो असल में उसके समक्ष विचाराधीन नहीं हैं।''

    हालांकि पीठ ने सभी 67 प्राथमिकियों के निवेशकों के हितों की रक्षा के लिए सत्र न्यायालय द्वारा अपनाए गए ''प्रशंसनीय इरादे'' की सराहना भी की। साथ ही पीठ ने यह भी कहा कि निर्दोष निवेशकों को बचाने का यह इरादा आपराधिक क्षेत्राधिकार के चार कोनों के भीतर प्रत्येक आपराधिक मामले/एफआईआर को उसके व्यक्तिगत गुणों के आधार पर निपटाते हुए हासिल किया जाना चाहिए।

    याचिकाकर्ता को सह-अभियुक्त के व्यक्तिगत बांड के लिए सिक्योरटी उपलब्ध कराने का निर्देश देना अवैध है

    अदालत ने इस बात पर भी ध्यान दिया कि जमानत देते समय 100 करोड़ रुपये की सिक्योरटी जमा कराने के लिए लगाई गई यह शर्त याचिकाकर्ता के निजी बांड के साथ-साथ उसके तीन सह-आरोपियों के लिए भी लगाई गई थी।

    इस शर्त को अन्यायपूर्ण करार देते हुए अदालत ने कहा कि-

    '' उपरोक्त अन्य अभियुक्त व्यक्ति,अगर जमानत पर रिहा होना चाहते हैं तो उन्हें इसके लिए जमानत मांगनी होगी। ऐसे में अगर उनको जमानत दे दी जाती है तो वह उन शर्तों का पालन करेंगे,जो जमानत देते समय उन पर लगाई जाएंगी। याचिकाकर्ता को उसके सह-अभियुक्त नानक चंद, राजेश सिंगला और बिशन बंसल के व्यक्तिगत बांड के लिए 100 करोड़ रुपये की सिक्योरटी के दस्तावेज प्रस्तुत करने का निर्देश देना एकदम अन्यायपूर्ण अनुचित,अयोग्य और अवैध है।''

    मामले का विवरण-

    केस का शीर्षक-अनिल जिंदल बनाम हरियाणा राज्य

    केस नंबर- सीआरएम-एम नंबर 4525/2020 (ओ एंड एम)

    कोरम-जस्टिस अरुण मोंगा

    प्रतिनिधित्व-वरिष्ठ अधिवक्ता डाॅ अनमोल रतन सिद्धू और वकील आरएस राय साथ में वकील कुणाल डावर और प्रथम सेठी (याचिकाकर्ता के लिए) और एएजी दीपक सभरवाल और डिप्टी एजी तनीशा पेशावरिया (राज्य के लिए)

    आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें




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