पटना हाईकोर्ट ने 1980 में दायर पुनरीक्षण याचिका का निपटारा किया; कहा -सिर्फ़ मामले का इंचार्ज लोक अभियोजक ही मामले को वापस लने का आवेदन दे सकता है
Rashid MA
16 Jan 2019 2:47 PM IST
वर्ष 1990 में दायर की गई एक याचिका पर सुनवाई पर ग़ौर करते हुए पटना हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि सिर्फ़ ऐसा लोक अभियोजक जो किसी मामले का इंचार्ज है, अभियोजन वापस लेने की अपील दायर कर सकता है।
पृष्ठभूमि
इस मामले में एक प्राथमिकी 1970 में दर्ज कराई गई थी। 1974 में या मामला सत्र अदालत में सुनवाई के लिए आया। इस बीच, नया आपराधिक दंड संहिता 1973 में लागू हो गया। एक अतिरिक्त लोक अभियोजक जिनका नाम राम खेलावन सिंह था, इस मामले की सुनवाई कर रहे थे और गवाहों की जाँच की जा रही थी।
वर्ष 1978 में लोक अभियोजक राम दयाल प्रसाद ने सीआरपीसी की धारा 321 के तहत अभियोजन वापस लेने के लिए आवेदन दिया। अतिरिक्त लोक अभियोजक ने इसका विरोध किया। कोर्ट ने इस मामले को वापस लेने की अर्ज़ी ख़ारिज कर दी। हाईकोर्ट ने इस मामले में दायर पुनरीक्षण याचिका को ख़ारिज कर दिया पर लोक अभियोजक को दुबारा आवेदन का अधिकार दिया। इस बार सत्र अदालत ने लोक अभियोजक की नई अपील को स्वीकार कर लिया।
इस आदेश के ख़िलाफ़ पुनरीक्षण याचिका 1981 में दायर की गई। शुरू में एकल पीठ ने इस मामले की सुनवाई की पर बाद में इसे खंडपीठ को और उसने इसे 1990 में पूर्ण पीठ को सौंप दिया।
Reference
अब पूर्ण पीठ को यह विचार करना था कि लोक अभियोजक में सीआरपीसी की धारा 321 (केस वापस लेने) के उद्देश्य से सहायक लोक अभियोजक या अतिरिक्त लोक अभियोजक भी आता है कि नहीं।
संहिता के संबंधित प्रावधानों का उल्लेख करते हुए न्यायमूर्ति राकेश कुमार, आदित्य कुमार त्रिवेदी और सुधीर सिंह की पीठ ने कहा कि सिर्फ़ इस मामले का इंचार्ज लोक अभियोजक ही इस बारे में कोर्ट में आवेदन दे सकता है।
पीठ ने कहा, "सत्र अदालत में लोक अभियोजक मामले का इंचार्ज होता है…मामले के इंचार्ज राम खेलावन सिंह हैं जो अतिरिक्त लोक अभियोजक हैं पर मामले को वापस लेने का आवेदन लोक अभियोजक राम दयाल प्रसाद, पटना ने दिया। संबंधित आदेश को पारित करने के समय राम खेलावन सिंह इस मामले के इंचार्ज थे और इसलिए जज को प्रसाद द्वारा दायर की गई याचिका पर ग़ौर नहीं करना चाहिए था क्योंकि वे इस मामले के इंचार्ज नहीं थे।"
इसके बाद पीठ ने इस पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार का लिया और 03.06.1980 को दिए गए सत्र अदालत के फ़ैसले को निरस्त कर दिया। अब चार दशक के अंतराल के बाद इस मामले की सुनवाई फिर शुरू होगी!