सुप्रीम कोर्ट ने कहा, निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 148 का प्रभाव है Retrospective (भूतलक्षी) [निर्णय पढ़ें]

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30 May 2019 9:15 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा, निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 148 का प्रभाव है Retrospective (भूतलक्षी) [निर्णय पढ़ें]

    "धारा 148, निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881), उस मामले में भी लागू होती है, जहां NI अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध के लिए आपराधिक शिकायतें 2018 संशोधन अधिनियम से पहले, यानी 01.09.2018 से पहले दायर की गई थीं।"

    एक महत्वपूर्ण निर्णय में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि संशोधित निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 148, उक्त अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध के लिए सजा और सजा के आदेश के खिलाफ अपील के संबंध में लागू होगी। यह उस मामले में भी लागू होगी, जहां धारा 138 के तहत अपराध की शिकायत NI अधिनियम 2018 संशोधन अधिनियम से पहले, यानी 01.09.2018 से पहले दायर की गयी थी।

    न्यायमूर्ति एम. आर. शाह और न्यायमूर्ति ए. एस. बोपन्ना की पीठ ने प्रथम अपीलीय अदालत के आदेश को बरकरार रखा, जिसने अपीलकर्ताओं-दोषियों को ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए जुर्माने/मुआवजे की राशि का 25% जमा करने का निर्देश दिया गया था। (इस प्रथम अपीलीय अदालत के आदेश की बाद में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा पुष्टि की गई थी)। दूसरे शब्दों में, अपीलीय न्यायालय अपीलकर्ता को एक राशि जमा करने का आदेश दे सकता है जो कि ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए जुर्माने या मुआवजे का न्यूनतम 20% होगा।
    NI अधिनियम की धारा 148, जिसे वर्ष 2018 में एक संशोधन द्वारा पेश किया गया, अपीलीय अदालत को यह शक्ति देती है कि वह अभियुक्त/अपीलार्थी को ट्रायल कोर्ट द्वारा तय 'जुर्माना' या 'मुआवज़े' का न्यूनतम 20% जमा करने का निर्देश दे सके।

    सुरिंदर सिंह देसवाल @ कर्नल एस. एस. देसवाल बनाम वीरेंद्र गाँधी के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय की पीठ द्वारा विचार किया गया मुद्दा यह था कि संशोधित NI अधिनियम की धारा 148 के अंतर्गत, क्या प्रथम अपीलीय अदालत, अपीलकर्ता-मूल अभियुक्त को, जिसे NI अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध के लिए दोषी ठहराया गया है, सजा और सजा के आदेश को चुनौती देने के लिए लंबित अपील के रहते हुए एवं सीआरपी की धारा 389 के तहत सजा को निलंबित करते हुए, यह निर्देश देने में न्यायसंगत है की वह ट्रायल कोर्ट द्वारा निर्धारित मुआवजे/जुर्माना की राशि का 25% जमा करे?

    शीर्ष अदालत के समक्ष अभियुक्तों की दलील यह थी कि यह संशोधित धारा, एनआई की धारा 148 में संशोधन से पहले ही शुरू की गई आपराधिक कार्यवाही के संबंध में लागू नहीं होगी।
    NI अधिनियम 2018 संशोधन की विषय-वस्तु की व्याख्या करते हुए, पीठ ने कहा था कि विवेकहीन चेककर्ताओं (चेक जारी करने वाले) की विलंब करने की रणनीति, जिसके अंतर्गत अपील के आसानी से दाखिल हो जाने और कार्यवाही पर रोक लग जाने के कारण, संसद ने यह उचित समझा कि यह एनआई की धारा 148 में संशोधन किया जाना चाहिए। अदालत ने कहा कि संशोधन के चलते यह नहीं कहा जा सकता है कि आरोपी-अपीलार्थी के अपील के कोई भी निहित अधिकार को हटा दिया गया है और/या प्रभावित किया गया है। यह देखा गया:
    "इसलिए, NI अधिनियम की धारा 148 में संशोधन की विषय-वस्तुओं और कारणों के विवरण (Statement of Objects and Reasons) को देखते हुए जिसे ऊपर बताया गया है, और संशोधित किए गए NI अधिनियम की धारा 148 की उद्देश्यपूर्ण व्याख्या पर, हमारा विचार यह है कि NI अधिनियम की धारा 148, NI अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध के लिए सजा और सजा के आदेश के खिलाफ अपील के संबंध में लागू होगी, यहां तक कि यह ऐसे मामले में भी लागू होगी जहां एनआई अधिनियम की धारा 138 के तहत अपराध के लिए आपराधिक शिकायतें, अधिनियम संख्या 20/2018 अर्थात, 01.09.2018 से पहले दायर की गई थीं। यदि ऐसी कोई व्याख्या नहीं अपनायी जाती है, तो उस स्थिति में, NI अधिनियम की धारा 148 में संशोधन का उद्देश्यहीन होगा।"
    अपीलीय अदालत के पास ट्रायल कोर्ट द्वारा लगाए गए जुर्माना/मुआवजा का न्यूनतम 20% जुर्माना जमा करने का अधिकार है

    बेंच के समक्ष एक अन्य विवाद यह भी था कि Cr.PC की धारा 357 (2) के अनुसार, इस तरह का कोई भी जुर्माना मामले की अपील के निर्णय आने तक देय नहीं है और इसलिए प्रथम अपीलीय न्यायालय द्वारा, मामले की अपील लंबित रहते, अपीलकर्ताओं को जुर्माना/मुआवजा की राशि का 25% जमा करने का निर्देश देने वाला कोई आदेश पारित नहीं किया जाना चाहिए था। इसके लिए
    दिलीप एस. धानुकर बनाम कोटक महिंद्रा बैंक
    मामले के निर्णय को प्रकाश में लाया गया था। इस दलील को खारिज करते हुए, पीठ ने कहा:
    "NI अधिनियम की संशोधित धारा 148 का प्रारंभिक शब्द यह है कि, 'दंड प्रक्रिया संहिता में निहित कुछ भी होते हुए... ". इसलिए सीआरपीसी की धारा 357 (2) के प्रावधानों के होने के बावजूद भी, प्रथम अपीलीय अदालत के समक्ष लंबित अपील, जिसमे एनआई अधिनियम की धारा 138 के तहत सजा और सजा के आदेश को चुनौती दी गयी है, अपीलीय अदालत के पास यह शक्ति है कि वह अपीलकर्ता को इस तरह की अपील के लंबित रहते, ट्रायल कोर्ट द्वारा लगाए गए जुर्माना या मुआवज़ा का न्यूनतम 20% जमा करने के निर्देश दे।"
    अपीलीय अदालत द्वारा जमा करने का निर्देश नहीं देना एक अपवाद है जिसके लिए विशेष कारण बताए जाने होंगे

    इस मामले में एक अन्य विवाद, N.I. की धारा 148 में प्रयुक्त शब्द 'may' (सकता/सकना) पर आधारित था। प्रावधानो में कहा गया है कि 'अपीलीय अदालत' अपीलकर्ता को ऐसी राशि जमा करने का आदेश दे "सकती" है जो कि ट्रायल कोर्ट द्वारा दिए गए जुर्माने या मुआवजे का न्यूनतम 20% होगा"। यह तर्क दिया गया था कि चूंकि प्रयुक्त शब्द "shall" (करेगा/करना) नहीं है, इसलिए अपीलकर्ता-अभियुक्त को यह निर्देश देने के लिए कि वह उक्त राशि जमा करे, पहली अपीलीय अदालत के पास विवेक (discretion) निहित है और अगर अपीलीय अदालत ने इस प्रावधान को अनिवार्य माना है (कि जुर्माना/मुआवज़ा लगाना अनिवार्य है) तो यह एनआई अधिनियम की धारा 148 के प्रावधानों के विपरीत होगा। अदालत ने कहा,
    "N.I. की संशोधित धारा 148 को, N.I. की संशोधित धारा 148 की विषय-वस्तु और कारणों के विवरण को एक साथ पढ़ने पर यह मालूम चलता है कि हालांकि यह सच है कि NI अधिनियम की संशोधित धारा 148 में, प्रयुक्त शब्द "may" है पर, आम तौर पर इसे "नियम" या "shall" के रूप में माना जाना चाहिए और अपीलीय अदालत द्वारा जमा करने के लिए निर्देशित नहीं करना एक अपवाद है, जिसके लिए विशेष कारणों को दिया जाना होगा।"
    अदालत ने आगे देखा:
    "इसलिए NI अधिनियम की संशोधित धारा 148, अपीलीय अदालत को अपील के लंबित रहते, अपीलकर्ता-अभियुक्त को राशि जमा करने के लिए, जो कि जुर्माने या मुआवजे के 20% से कम नहीं होगा, निर्देशित करने की शक्ति देती है और ऐसा या तो मूल शिकायतकर्ता के आवेदन पर या यहां तक कि सजा को रद्द करने के लिए Cr.PC की धारा 389 के तहत अपीलकर्ता-अभियुक्त द्वारा दायर किए गए आवेदन पर किया जा सकता है। ऐसा मानना इसलिए आवश्यक है क्यूंकि NI अधिनियम की संशोधित धारा 148 के अनुसार, ट्रायल कोर्ट द्वारा लगाए गए जुर्माने या मुआवजे का कम से कम 20% जमा करने के लिए निर्देशित किया जाता है और यह कि इस तरह की राशि, आदेश की तारीख से 60 दिनों की अवधि के भीतर जमा की जानी है, या इस तरह की आगे की अवधि के भीतर जोकि 30 दिनों से अधिक नहीं है, जिसके लिए अपीलकर्ता द्वारा अपीलीय अदालत को पर्याप्त कारण दिखाया जाना चाहिए। इसलिए, यदि NI अधिनियम की धारा 148 में संशोधन किया गया है, तो अगर इसे इस तरह से व्याख्यायित किया जायेगा तो यह न केवल इस धारा 148 की विषय-वस्तु एवं कारणों के विवरण को बल्कि एनआई की धारा 138 के उद्देश्य को भी पूरा करेगा। NI अधिनियम में समय-समय पर संशोधन किया गया है, ताकि चेक के अनादर से संबंधित मामलों का त्वरित निपटान हो सके। यह भी देखा जाना चाहिए कि विवेकहीन चेककर्ताओं (चेक जारी करने वाले) की विलंब करने की रणनीति, जिसके अंतर्गत अपील के आसानी से दाखिल हो जाने और कार्यवाही पर रोक लग जाने के कारण, चेक के आदाता के साथ अन्याय होता था, जिसे चेक के मूल्य प्राप्त करने के लिए अदालती कार्यवाही में काफी समय और संसाधन खर्च करने पड़ता है और यह देखते हुए कि इस तरह की देरी ने चेक लेनदेन की पवित्रता से समझौता किया है, संसद ने यह उचित समझा कि NI अधिनियम की धारा 148 में संशोधन किया जाना चाहिए। इसलिए, इस तरह की एक उद्देश्यपूर्ण व्याख्या, N.I. की धारा 148 में संशोधन की विषय-वस्तु और कारणों एवं N.I. की धारा 138 के उद्देश्य की पूर्ती करेगी।"
    क्या धारा 143 A पूर्वव्यापी (Retrospective) है?

    हाल ही में, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह माना था कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 143 ए का कोई पूर्वव्यापी प्रभाव नहीं है, जबकि धारा 148, इस प्रावधान के लागू होने के दौरान लंबित अपील पर लागू होगी। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक विशेष अवकाश याचिका विचाराधीन है जो इस मुद्दे को उठाती है कि क्या एनआई अधिनियम की क्या धारा 143-ए का पूर्वव्यापी प्रभाव है या नहीं?

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