एनआई अधिनियम की धारा 138: नोटिस में ऋण की प्रकृति और देनदारी के बारे में कुछ नहीं बताने से नोटिस व्यर्थ नहीं हो जाता है : केरल हाईकोर्ट [आर्डर पढ़े]

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1 Jun 2019 7:43 AM GMT

  • एनआई अधिनियम की धारा 138: नोटिस में ऋण की प्रकृति और देनदारी के बारे में कुछ नहीं बताने से नोटिस व्यर्थ नहीं हो जाता है : केरल हाईकोर्ट [आर्डर पढ़े]

    केरल हाईकोर्ट ने कहा है कि एनआई की धारा 138 के तहत दिए गए नोटिस में ऋण या देनदारी के बारे में बताने से चूकने के कारण नोटिस अमान्य नहीं हो जाता है।

    न्यायमूर्ति आर नारायण पिशारदी ने कहा कि इस बात की क़ानूनी बाध्यता नहीं है कि शिकायतकर्ता को अपनी शिकायत में अपनी देनदारी के बारे में बताने की बाध्यता नहीं है।

    कोर्ट एक याचिका पर ग़ौर कर रहा था जिसमें एक आपराधिक प्रक्रिया को इस आधार पर निरस्त करने की माँग की गई थी कि शिकायतकर्ता ने जो नोटिस भेजी उसमें चेक की राशि के भुगतान की कोई माँग नहीं की गई थी। इस तरह नोटिस ख़ामियों से भरा है और इसलिए इस नोटिस के आधार पर आरोपी के ख़िलाफ़ कार्यवाही आगे नहीं बढ़ाई जा सकती।

    नोटिस पर ग़ौर करने के बाद कोर्ट ने कहा कि शिकायतकर्ता को चेक की राशि प्राप्त करने का क़ानूनी अधिकार है और याचिकाकर्ता को नोटिस के 15 दिन बाद ₹35 लाख रुपए देने के लिए क़ानूनन बाध्य है।

    अदालत ने इस दलील को ख़ारिज कर दिया कि नोटिस में ऋण या देनदारी की प्रकृति के बारे में कुछ भी नहीं बताया गया है और इस वजह से यह नोटिस ख़ामियों से भरा है।

    "इस बात का कोई वैधानिक बाध्यता नहीं है कि नोटिस में ऋण या देनदारी की प्रकृति का विवरण हो। इसलिए नोटिस में ख़ामी या इस बात का छूटना कि ऋण या देनदारी की प्रकृति कैसी है, नोटिस को ग़लत नहीं बना देता है। यह भी ग़ौर करने वाली बात है कि ऋण की प्रकृति के बारे शिकायत में बताया गया है।"

    यह भी कहा गया कि शिकायत में इस बात की पुष्टि नहीं है कि चेक इस बात के लिए जारी किया गया था कि शिकायतकर्ता से कथित रूप से उधार ली गई राशि को चुकाई जा सके। कोर्ट ने शिकायत को निरस्त करने से इंकार करते हुए कहा,

    "शिकायत में इस तरह की पुष्टि की कोई ज़रूरत नहीं है। इस बात की कोई बाध्यता नहीं है कि शिकायतकर्ता शिकायत में इस बात का ज़िक्र करे ही कि जीवनयापन की देनदारी है।".


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