मरने से पहले बयान रिकॉर्ड करने के लिए मृतक को शपथ दिलाने से वह अविश्वसनीय नहीं हो जाता है : इलाहाबाद हाईकोर्ट [आर्डर पढ़े]

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3 Jun 2019 8:46 AM GMT

  • Allahabad High Court expunges adverse remarks against Judicial Officer

    इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि मरने से पहले बयान रिकॉर्ड करने के लिए मृतक को एक तरह की शपथ दिलाई गई है जिसकी वजह से वह बयान अविश्वसनीय नहीं बन जाता है और इसलिए वह निरर्थक नहीं हो जाता। अगर कार्यपालक मजिस्ट्रेट मरने से पहले के बयान की रिकॉर्डिंग के लिए कोई विशेष तरह की भाषा चाहता है तो मृतक को इसमें किसी तरह की गड़बड़ी के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है और न ही अभियोजन की ही इसमें ग़लती मानी जा सकती है।

    न्यायमूर्ति प्रीतिंकर दिवाकर और न्यायमूर्ति अली ज़मीन की पीठ ने संबंधित फ़ैसले के ख़िलाफ़ एक अपील पर सुनवाई करते हुए यह बात कही। बदायूँ के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने अपीलकर्ता को आईपीसी की धारा 302/34 के तहत उसे दोषी माना और उसे आजीवन सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई।

    पृष्ठभूमि

    मृतक राधे श्याम माहेश्वरी एक वक़ील थे और एक सक्रिय नेता भी। वह कांग्रेस पार्टी के जिलास्तरीय समिति के सचिव थे। मृतक आरोपी चोब सिंह पहले कांग्रेस पार्टी के ब्लॉक अध्यक्ष थे और पार्टी विरोधी गतिविधियों को देखते हुए उसे पार्टी से निलंबित कर दिया गया और उसके बाद से मृतक से उसके शत्रुवत संबंध हो गए।

    मृतक 19.4.2004 को जब एडवोकेट राजेंद्र पाल गुप्ता के घर जा रहा था तो वर्तमान अपीलकर्ता और मृतक आरोपी चोब सिंह ने उसे पकड़ लिया। आरोपी धर्म पाल के पास लोहे की छड़ थी और अन्य लोगों के पास देशी कट्टा था।

    धर्म पाल ने उस पर लोहे की छड़ से पहले वार किया और उसके बाद मृत आरोपी चोब सिंह ने लोगों से उसे पर हमले करने को कहा जिसके बाद अन्य आरोपियों ने उस पर फ़ायरिंग कर घायल कर दिया।

    निर्णय

    अदालत ने आरोपियों को दोषी ठहराए जाने के निचली अदालत के फ़ैसले को सही बताया। अपील ख़ारिज करते हुए कोर्ट ने कहा कि इस अपील में दम नहीं है। कोर्ट ने कहा,

    "यह तथ्य है कि मृतक को गोली लगी और वह घायल हो गया। उसके पोस्टमार्टम रिपोर्ट में अभियोजन के आरोपों की पुष्टि होती है। हम बचाव पक्ष की दलील को दमदार नहीं मान रहे कि जब मृतक ख़ुद राकेश कुमार माहेश्वरी द्वारा रिपोर्ट लिखाने के समय थाने में मौजूद था तो एफआईआर मृतक के बयान पर दर्ज कराया जाना चाहिए। अगर एफआईआर पीडब्ल्यू-1 के कहने पर दर्ज हुआ है तो यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियोजन का केस दोषपूर्ण है।"

    कोर्ट ने इस मामले में गुजरात राज्य बनाम जयराजभाई पूँजभाई वारू (2016) 14 SCC मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर भरोसा करते हुए यह फ़ैसला सुनाया। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मरने से पहले दिए जाने वाले बयान के बारे में कहा था :

    "अदालत को सभी मौजूद हालात को तौलना होगा और उसके बाद उसे स्वतंत्र निर्णय करना होगा कि मरने से पहले बयान ठीक तरह से लिया गया और यह स्वैच्छिक और सत्य था। एक बार जब अदालत इस बारे में आश्वस्त हो जाती है कि मरने से पहले का बयान इस तरीक़े से रिकॉर्ड हुआ है, तो इसके बाद वह इस आधार पर सज़ा सुना सकता है। यह किसी अन्य मामले से कई मामलों में अलग हो सकता है और इसलिए इस मामले में किसी भी तरह के यांत्रिक उपाय से बचने की ज़रूरत होगी।"

    कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के पी मणि बनाम तमिलनाडु राज्य (2006) 3 SCC मामले में आए फ़ैसले पर भी भरोसा किया और कहा कि सिर्फ़ मरने से तुरंत पहले के बयान के एकमात्र आधार पर भी दोषी ठहराया जा सकता है पर यह विश्वसनीय होना चाहिए।

    अपीलकर्ता की पैरवी एडवोकेट अरविंद कुमार श्रीवास्तव ने की जबकि प्रतिवादी के वक़ील थे एजीए अमित सिन्हा।


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