सजा के बाद हुई गंभीर मानसिक बीमारी है गंभीरता कम करने वाला कारक,सुप्रीम कोर्ट ने जारी किए निर्देश [निर्णय पढ़े]

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19 April 2019 9:46 AM GMT

  • सजा के बाद हुई गंभीर मानसिक बीमारी है गंभीरता कम करने वाला कारक,सुप्रीम कोर्ट ने जारी किए निर्देश [निर्णय पढ़े]

    सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि अगर सजा होने के बाद किसी को कोई मानसिक बीमारी हो जाती है तो ऐसे में मौत की सजा पाए इस व्यक्ति की अपील पर सुनवाई करते समय इसे एक गंभीरता कम करने वाले कारक के तौर पर देखा जाएगा।

    जस्टिस एन.वी रमाना,जस्टिस मोहन एम शांतनागौड़र व जस्टिस इंद्रा बनर्जी की खंडपीठ ने दो नाबालिग लड़कियों से दुष्कर्म करने व उनकी हत्या करने के मामले में फांसी की सजा पाए आरोपी की सजा बदल दी है।

    आरोपी को वर्ष 2001 में निचली अदालत ने दोषी करार देते हुए फांसी की सजा दी थी। जिसे हाईकोर्ट ने भी ठीक ठहराया था। नवम्बर 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने भी आरोपी की अपील को खारिज कर दिया था। बाद में उसकी पुनःविचार याचिका को भी खारिज कर दिया गया था। बाद में मोहम्मद आरिफ उर्फ अश्फाक बनाम रजिस्ट्रार आॅफ सुप्रीम कोर्ट में दिए गए फैसले का हवाला देते हुए आरोपी ने फिर से अपनी पुनःविचार याचिकाओं पर सुनवाई करने की मांग की।

    पुनःविचार याचिका में दो मुद्दे उठाए गए थे। पहला यह कि निचली अदालत नेे सजा देते समय उसे अलग से सुनवाई का मौका नहीं दिया। जबकि सीआरपीसी की धारा 235(2) के तहत उसे सजा देने से पहले उसे सुनने या उसका पक्ष रखने का मौका दिया जाना चाहिए था। आरोपी के वकील ने यह भी दलील दी कि जो व्यक्ति मानसिक रूप से बीमार हो उसे फांसी देने से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होगा। इसलिए इस तरह की मानसिक बीमारी उसके अपराध की गंभीरता को कम करने वाला एक कारक है,इसलिए उसकी फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील किया जाना चाहिए।

    कोर्ट ने कहा कि जहां तक पहले मुद्दे की बात है तो सीआरपीसी की धारा 235(2) के उद्देश्य व तात्पर्य की बात है तो वह पूरा किया गया है और आरोपी को अपना पक्ष रखने के लिए पूरा मौका दिया गया था। चाहे वह मौखिक दलीलों की बात हो या अन्य लिखित तथ्य पेश करने की। वहीं दोषी करार देने व उसकी दिन सजा देने की सुनवाई करने पर भी कोई रोक नहीं है। मामले के तथ्यों व परिस्थितियों को देखने के बाद हो सकता है कि सजा पर सुनवाई करने के लिए अलग तारीख दी जाए। परंतु अगर दोनों पक्ष सहमत हो तो इस बात की भी पूरी अनुमति है कि सजा पर बहस उसी दिन की जाए,जिस दिन आरोपी को दोषी करार दिया गया था।

    बेंच ने इस सवाल पर भी विस्तार से विचार किया कि क्या सजा होने के बाद किसी आरोपी के मानसिक तौर पर बीमार होने को मौत की सजा से राहत देने के मामले में गंभीरता कम करने वाले कारक के तौर पर स्वीकार किया जा सकता है। बेंच ने कहा कि-

    भारत ने अंतर्राष्ट्रीय फोरम के समक्ष यह जिम्मेदारी ली है कि वह किसी मानसिक रूप से बीमार मरीज को किसी कठोर व अनोखी सजा नहीं देगा। इसलिए इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए इस कोर्ट के लिए जरूरी हो गया है कि एक ऐसा टेस्ट उपलब्ध कराए,जिसके मानसिक रूप से बीमार सिर्फ उन्हीं आरोपियों के मामले में फांसी की सजा पर रोक लगाई जा सके,जिनमें ऐसा किया जाना बहुत जरूरी है। इस कोर्ट को इस मामले में सावधानी बरतने की जरूरत इसलिए भी है ताकि कोई भी आरोपी इस बीमारी का बहाना करके अपनी सजा से बच न पाए या इस दलील को दुरूपयोग न कर पाए।

    खंडपीठ ने निम्न निर्देश जारी किए है-

    • सजा होने के बाद गंभीर रूप से मानसिक तौर पर बीमार होना एक गंभीरता को कम करने वाला कारक माना जाएगा,जिस पर अपीलेट कोर्ट सिर्फ उचित मामलों में ही आरोपी को फांसी की सजा देते समय विचार करेगी।
    • इस डिसेब्लिटी का निर्धारण प्रशिक्षित प्रोफेशनल की टीम ही करेगी,जिसमें अनुभवी मेडिकल प्रैक्टिशनर व क्रिमीनोलोजिस्ट आदि को शामिल किया जाए। इतना ही नहीं इस टीम में मामले के आरोपी की मानसिक बीमारी के विशेषज्ञ को भी विशेष तौर पर शामिल किया जाए।
    • इस बात की जिम्मेदारी आरोपी की होगी कि वह यह साबित कर पाए कि गंभीर मानसिक बीमारी से पीड़ित है। आरोपी को इसके लिए सक्रिय या अवशिष्ट लक्षण दिखाने होगे,जिनसे पता चल सके कि उसको हुई गंभीर मानसिक बीमा तेजी से सामने आ रही है। हालांकि राज्य इन दावों का जवाब देने के लिए सबूत पेश कर सकता है।
    • कोर्ट उचित मामलों में एक पैनल का गठन कर सकती है ताकि एक्टपर्ट रिपोर्ट दायर की जा सके।
    • गंभीरता के टेस्ट में यह देखा जाना जरूरी है कि आरोपी को गंभीर मानसिक बीमारी हुई हो,जिसको देखने का मुख्य उद्देश्य यह है कि आरोपी को बीमारी ऐसी गंभीर होनी चाहिए कि आरोपी उसको दी जाने वाली सजा की प्रकृति और गंभीरता को समझ पाने की स्थिति में ही न हो।

    इस मामले में खंडपीठ ने कहा कि मनोचिकित्सकों की रिपोर्ट से पता चलता है कि आरोपी मानसिक चिड़चिड़ापन के कुछ रूप से वर्ष 1994 से पीड़ित है। इसलिए आरोपी की सजा को फांसी से उम्रकैद में तब्दील करते हुए कोर्ट ने राज्य को निर्देश दिया है कि वह इस आरोपी के केस पर मेंटल हेल्थकेयर एक्ट 2017 के तहत भी विचार करे।


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