जिरह बच्चों का खेल नहीं है, क़ानूनी मदद का अर्थ युवा वकीलों को मंच उपलब्ध कराना नहीं है : गुजरात हाईकोर्ट [निर्णय पढ़े]

Live Law Hindi

23 March 2019 4:47 PM GMT

  • जिरह बच्चों का खेल नहीं है, क़ानूनी मदद का अर्थ युवा वकीलों को मंच उपलब्ध कराना नहीं है : गुजरात हाईकोर्ट [निर्णय पढ़े]

    'क़ानूनी मदद बकवास है', यह कहना था गुजरात हाईकोर्ट का जिसने एक महिला को दोहरे हत्याकांड के लिए मिली मौत की सज़ा को निरस्त करते हुए यह बात कही। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि इसके बावजूद कि एफआईआर में इस बात का ज़िक्र किया गया था, आरोपी महिला की मानसिक स्थिति की जाँच नहीं की गई।

    न्यायमूर्ति जेबी परदीवाला और न्यायमूर्ति एसी राव की खंडपीठ ने क़ानूनी सहायता मुहैया कराने की बात की गंभीर आलोचना की।

    कोर्ट ने कहा कि 19 साल की एक बेसहारा लड़की ग़रीबी के कारण एक अच्छा अनुभवी वक़ील नहीं कर पाई और उसे ज़िला विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा उपलब्ध कराए गए वक़ील पर ही निर्भर रहना पड़ा।

    इस बात से क्षुब्ध कि बचाव पक्ष का वक़ील जिसको उसकी मदद के लिए प्राधिकरण ने नियुक्त किया था आरोपी के मानसिक रूप से असंतुलित होने का कोई सबूत भी कोर्ट में पेश नहीं कर पाया। कोर्ट ने कहा,"क़ानूनी सहायता देने के लिए जिन वकीलों का पैनल बनाया जाता है वह कोई युवा वकीलों को प्रशिक्षण देने का मंच नहीं है या उन्हें सत्र अदालत की कार्रवाई में भाग लने का मौक़ा देकर अनुभव प्राप्त करने का अवसर नहीं है। हत्या जैसे गंभीर मामले में गवाहों से जिरह करना कोई बच्चों का खेल नहीं है। यह दुर्भाग्य की बात है कि इस मामले में व्यावहारिक रूप से कोई जिरह हुआ ही नहीं। और ऐसा सिर्फ़ इसी मामले में नहीं हुआ है। हमने ऐसे कई अपील देखे हैं जिनमें विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा नियुक्त किए गए वक़ील द्वारा बचाव पक्ष की ओर से किसी तरह का जिरह हुआ ही नहीं।"

    कोर्ट ने कहा कि ऐसा लगता है कि वक़ील को पर्याप्त अनुभव नहीं था विशेषकर आरोपी के मानसिक रूप से अस्थित होने के बारे में वह किस तरह से उसका बचाव करे।

    कोर्ट ने कहा कि भविष्य में अगर निचली अदालत के जज को लगता है कि अपराध की प्रकृति इस तरह की है कि आपराधिक मामलों में अनुभवी वक़ील की सहायता की ज़रूरत है तो यह निचली अदालत में सुनवाई करने वाले जज का कर्तव्य होगा कि वह ऐसे वक़ील की नियुक्ति करे, इस तरह के वक़ील को जितना पैसा मिलना चाहिए उसका निर्धारण करे और इसके बाद यह राशि राज्य सरकार से लेकर संबंधित वक़ील को इसका भुगतान करे।

    कोर्ट ने अपने निर्देश में कहा -

    • नियुक्त किए जाने वाले वक़ील के बारे में यह पता लगाया जाएगा कि इससे पहले उसने सत्र मामलों की पैरवी की है कि नहीं और वह कितने लम्बे समय से प्रैक्टिस कर रहा है यह उसकी नियुक्ति का आधार नहीं हो सकता।
    • अगर मामला जटिल और विशिष्ट तरह का है तो यह पता किया जाए कि उसने इस तरह के मामलों की पैरवी की है या नहीं।
    • राज्य के ख़र्चे पर दी जाने वाली क़ानूनी मदद नाम मात्र का नहीं होना चाहिए।
    • इस तरह की तहक़ीक़ात के बाद ही आरोपी के लिए वक़ील की नियुक्ति की जानी चाहिए और वह भी उसकी क्षमता के बारे में संतुष्ट हो जाने के बाद।

    कोर्ट ने कहा कि निचली अदालत को अपने आदेश में यह बताना चाहिए कि जिस वक़ील की नियुक्ति की गई है वह कितने सालों से प्रैक्टिस कर रहा है और आपराधिक मामलों की पैरवी के बारे में उसको कितना अनुभव है।


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