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मौत की सज़ा तभी दी जाए जब आजीवन कारावास की सज़ा पूरी तरह अपर्याप्त लगे: सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]
![मौत की सज़ा तभी दी जाए जब आजीवन कारावास की सज़ा पूरी तरह अपर्याप्त लगे: सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े] मौत की सज़ा तभी दी जाए जब आजीवन कारावास की सज़ा पूरी तरह अपर्याप्त लगे: सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]](https://hindi.livelaw.in/h-upload/2019/03/19358946-justice-nv-ramana-justice-mohan-m-shantanagoudar-justice-indira-banerjeejpg.jpg)
आरोपी का कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं होने और उसके व्यवहारों पर ग़ौर करने के बाद में हम इस बात से संतुष्ट नहीं हैं कि उसमें सुधार की कोई संभावना नहीं है।
पाँच साल की एक लड़की से बलात्कार और उसकी हत्या के दोषी एक व्यक्ति की मौत की सज़ा को बदलते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मौत की सज़ा अवश्य ही तभी दी जाए जब आजीवन कारावास की सज़ा निहायत ही अपर्याप्त लगे।
न्यायमूर्ति एनवी रमना,न्यायमूर्ति एमएम शांतनागौदर और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की पीठ ने सचिन कुमार सिंघराहा को बिना छूट के 25 साल की कारावास की सज़ा सुनाई।
यह पीड़ित लड़की एलकेजी में पढ़ी थी जब उसके साथ यह पाशविक कृत्य हुआ। आरोपी को निचली अदालत ने जो दोषी ठहराया उसे सुप्रीम कोर्ट ने सही बताया और कहा कि यद्यपि साक्ष्य में कई संगतियाँ हैं और प्रक्रियागत ख़ामियों को सामने लाया गया है पर इसकी वजह से आरोपी को संदेह का लाभ नहीं दिया जा सकता है।
पीठ ने कहा कि इस मामले में मौत की सज़ा जायज़ नहीं है। कोर्ट ने कहा कि उसके व्यवहार और आपराधिक रेकर्ड नहीं होने को देखते हुए वह इस बात से सहमत नहीं है कि आरोपी में कोई सुधार नहीं हो सकता।
स्थापित विचार के अनुसार, आजीवन कारावास नियम है जबकि मौत की सज़ा अपवाद। जैसा कि इस कोर्ट ने Santosh Kumar Singh v. State through C.B.I., (2010) 9 SCC 747 मामले में अपने फ़ैसले में पहले कहा है कि सज़ा देना एक कठिन कार्य है ...पर जब विकल्प आजीवन कारावास और मौत की सज़ा में चुनना हो, और कोर्ट को दोनों में से कोई सज़ा चुनने में मुश्किल हो तो उचित यह है कि कमतर सज़ा सुनाई जाए।
पीठ ने तब आरोपी की मौत की सज़ा को बदलकर उसे 25 साल के आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई।