सिर्फ़ ऋण चुका नहीं पाने का मतलब 'धोखाधड़ी' नहीं हो जाता : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]

Live Law Hindi

23 Feb 2019 3:05 PM GMT

  • सिर्फ़ ऋण चुका नहीं पाने का मतलब धोखाधड़ी नहीं हो जाता : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]

    सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फ़ैसले में कहा है कि अगर कोई व्यक्ति ऋण चुकाने में विफल रहता है तो इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि उसके ख़िलाफ़ धोखाधड़ी का आपराधिक मामला बनता है। ऐसा तभी हो सकता है जब कारोबार की शुरुआत में ही इस तरह की बेईमानी के इरादे के स्पष्ट होने का संकेत मिलता है।

    सतीशचंद्र रतनलाल बनाम गुजरात राज्य मामले में हाईकोर्ट के आदेशके ख़िलाफ़ दायर एक अपील पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने यह मत व्यक्त किया। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में धोखाधड़ी के एक मामले में आरोपी के ख़िलाफ़ जारी सम्मन को निरस्त करने से इंकार कर दिया था।

    पीठ ने इस मामले के बारे में उपलब्ध तथ्यों के बारे में कहा कि दो पक्षों के बीच ऋण को लेकर यह विवाद शुरू हुआ; दोनों ही पक्ष एक दूसर को ऋण के लेन-देन से पहले से ही जानते थे; शिकायतकर्ता ने एक संक्षिप्त दीवानी मुक़दमा दायर किया है जो अभी भी लंबित है। इन बातों पर ग़ौर करते हुए पीठ ने कहा :

    "क़ानून में साधारण भुगतान/पैसे का निवेश और पैसे या परिसंपत्ति को सौंपने में अंतर को स्पष्ट किया गया है। सिर्फ़ किसी वादे, समझौते या क़रार को तोड़ना आईपीसी की धारा 405 के तहत विश्वास को तोड़ने की आपराधिक कृत्य नहीं हो सकता अगर इसमें स्पष्ट रूप से सौंपे जाने की बात शामिल नहीं है।

    कोर्ट ने यह भी कहा कि वर्तमान मामले में आरोपी को कोई परिसंपत्ति नहीं सौंपा गया था जिसका उसने अपने लिए प्रयोग किया और जिसके लिए उसको आईपीसी की धारा 405 और 406 के तहत दंडित किया जा सके। आईपीसी की धारा 415 की चर्चा करते हुए पीठ ने कहा कि सिर्फ़ क़रार तोड़ने और धोखाधड़ी के बीच अंतर फ़र्ज़ी प्रलोभन और इसके पीछे आपराधिक मनोभाव पर निर्भर करेगा।

    कोर्ट ने कहा "वर्तमान मामले में, अपीलकर्ता आर्थिक संकट में फँस गया और इसीलिए उसने प्रतिवादी नम्बर दो के पास गया और उसे इस संकट से निकालने को कहा। उपरोक्त राशि की वसूली के लिए प्रतिवा /दी नम्बर दो ने एक संक्षिप्त दीवानी मामला दायर किया है जो कि अभी भी अदालत के विचाराधीन है। अपीलकर्ता का सिर्फ़ ऋण की राशि नहीं लौटा पाना उसके ख़िलाफ़ धोखाधड़ी का आपराधिक मामला नहीं तैयार करता बशर्ते कि शुरू से ही उसने बेईमानी की नीयत का प्रदर्शन किया होता क्योंकि आपराधिक मनोस्थिति ही अपराध का मर्म है। अगर इस मामले में सभी तरह के तथ्यों और शिकायतों को सही मान लिया जाए तो भी इस तरह की बेईमानी की नीयत का पता नहीं चल पाता है।"

    कोर्ट ने कहा कि आईपीसी की धारा 415 सिर्फ़ उसे क़रार तोड़ना बताता है जिसमें धोखाधड़ी, बेईमानी और छल छद्म से प्रलोभन देने जैसी बातें शामिल होती हैं और जिसकी वजह से आईपीसी की धारा 415 के तहत अनैच्छिक और अक्षम ट्रान्स्फ़र होते हैं।

    इसके बाद पीठ ने इस शिकायत को ख़ारिज कर दिया और हाईकोर्ट के आदेश को भी निरस्त कर दिया।


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