लापता नाबालिग लड़की की जांच में कोताही : बॉम्बे हाईकोर्ट ने मौत होने पर मां- बाप को दस लाख रुपये देने का आदेश दिया [निर्णय पढ़े]
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8 Jun 2019 1:38 PM IST
एक अभूतपूर्व फैसले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने राज्य सरकार को एक नाबालिग लड़की के माता-पिता को जांच में कोताही बरतने के लिए 10 लाख रुपये बतौर मुआवजा देने का निर्देश दिया है। इस मामले में लड़की लापता हो गई थी और बाद में 2 जनवरी, 2012 को पुलिस ने उसका शव बरामद किया।
इस मामले में न्यायमूर्ति बी. पी. धर्माधिकारी और न्यायमूर्ति पी. डी. नाइक की पीठ ने आरोपी नज़ीर जावेद खान द्वारा दायर अपील को आंशिक रूप से अनुमति दी जिसे भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या) और 376 (बलात्कार) के तहत दोषी ठहराया गया था और उसे मौत की सजा सुनाई गई थी।
दरअसल 28 मार्च, 2016 को विशेष POCSO जज द्वारा पारित उक्त आदेश को कोर्ट ने रद्द कर दिया था। हालांकि कोर्ट ने नज़ीर के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 201 (अपराध के सबूतों को गायब करने या अपराध की गलत जानकारी देने के कारण) के तहत आरोपों को बनाए रखा ।
दरअसल 3 जनवरी को वारिस अली को पता चला कि उनके इलाके में विज्ञापन फर्म में काम करने वाले एक व्यक्ति ने उसकी बेटी की हत्या की और संभाजी नगर क्षेत्र में उसके शव को फेंक दिया। उसने वह जानकारी पुलिस को दी और फिर आरोपी नज़ीर को 3 जनवरी 2012 को गिरफ्तार कर लिया गया।
वारिस अली ने नज़ीर खान और उसके नियोक्ता यानी आरोपी नंबर 2 विनोद मेहर के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई। खान को मौत की सजा सुनाई गई थी जबकि मेहर को आईपीसी की धारा 201 के तहत दोषी ठहराया गया और उसे 3 साल जेल की सजा सुनाई गई थी।
पीड़ित की पहली पोस्टमार्टम रिपोर्ट डॉ पंकज गज़ारे द्वारा तैयार की गई थी जबकि उच्च न्यायालय के निर्देश पर दूसरी रिपोर्ट डॉ भालचंद्र चिखलकर ने तैयार की। दरअसल वारिस अली ने मामले में दोषपूर्ण जांच का आरोप लगाते हुए अदालत में एक याचिका दायर की थी।
नज़ीर के मुताबिक उसे बच्ची का शव एक प्लाईवुड के नीचे पड़ा मिला। नज़ीर ने कहा कि इकट्ठा किया गया प्लाईवुड बच्चे के शरीर पर गिर गया था।
डॉ चिखलकर ने यह कहा था कि यौन उत्पीड़न के कारण ही योनि और पीड़िता की गुदा में चोट लगी हो सकती है। दूसरी रिपोर्ट में यह भी निष्कर्ष निकाला गया कि गर्दन पर चोटों और जबड़े पर चोट के निशान गला घोंटने और नाक और मुंह बंद करने के कारण हो सकते हैं।
चौधरी ने इस तथ्य पर आधारित दूसरी रिपोर्ट पर सवाल उठाया कि डॉ चिखलकर ने पीड़ित लड़की के शरीर को नहीं देखा था बल्कि केवल उसके शरीर की तस्वीरें देखी थीं। उन्होंने आगे सवाल किया कि डॉ गज़ारे की रिपोर्ट के साथ अंतर करने के कारणों को दूसरी रिपोर्ट में दर्ज नहीं किया गया जबकि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 51 में इसकी परिकल्पना की गई है।
वहीं राज्य की ओर से पेश हुए एपीपी एम. एम. देशमुख ने यह आरोप लगाया कि गोदाम में पीड़ित की उपस्थिति विवादित नहीं है। तथ्य यह है कि उक्त ब्लॉक में उसकी मृत्यु भी विवाद में नहीं है। आरोपी नज़ीर ने सीआरपीसी की धारा 313 के तहत अपने परीक्षण के दौरान दोनों आरोपी व्यक्तियों की भूमिका स्वीकार की और वह भी विवाद में नहीं है। इस प्रकार ट्रायल कोर्ट के फैसले में कुछ भी गलत नहीं है।
देशमुख ने यह भी तर्क दिया कि चूंकि दूसरी रिपोर्ट 3 विशेषज्ञों द्वारा बनाई गई है इसलिए वो पहली पोस्टमार्टम रिपोर्ट को महत्वहीन बनाती है।
रिकॉर्ड पर सबूतों की जांच के बाद, कोर्ट ने कहा-
"भारतीय दंड संहिता की धारा 299 में यह कहा गया है कि जब भी मौत शारीरिक चोट के कारण होती है तो जो व्यक्ति इस तरह की शारीरिक चोट का कारण बनता है, उसे ऐसी मौत का कारण माना जाता है और दोषी हत्या का कारण बनता है। धारा 304 के तहत सजा का प्रावधान है, अगर इस तरह की हत्या हत्या के समान नहीं है। धारा 304-ए में लापरवाही से मौत का कारण बनता है।"
दुर्भाग्य से वर्तमान मामले में जांच अधिकारी ने इस संबंध में कोई सामग्री रिकॉर्ड में पेश नहीं की है। 01.08.2012 के इस न्यायालय के आदेश के बाद भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है।
जहां तक मामले में आरोपी नंबर 2 की संलिप्तता का संबंध है, न्यायालय ने यह देखा कि वह पीड़िता के शव को निकालने के प्रयास में स्टेशन से बाहर गया था और फिर अप्रिय घटना के सबूत मिटा दिए गए।
हालांकि आरोपी नंबर 1 नज़ीर के बारे में भी ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह वह है जिसने इस मामले में मुख्य भूमिका निभाई है। गवाहों ने रिकॉर्ड पर माना है कि उसके हावभाव और कार्य दर्शाते हैं कि वो शव को दूर स्थान पर फेंक कर आया ताकि कोई भी इस घटना को उसके कार्य स्थान के साथ जोड़ ना सके। पीडब्लू 15 रावबाली खान को प्लाईवुड की चादरें बेचने से पता चलता है कि वह एक ऐसी तस्वीर बनाना चाहता था जैसे उसके गोदाम में कोई अप्रिय घटना घटी ही ना हो।
अंत में कोर्ट ने यह पाया कि मामले में जांच का अभाव था और यह कहा-
"अब, सच्चाई या वास्तविक घटना का पता लगाना असंभव है। लेकिन इस अदालत के निर्देशों के बावजूद उचित जांच करने में चूक करना, निश्चित रूप से पीड़ित परिवार को राज्य सरकार से उचित मुआवजे का अधिकार देती है। वर्तमान तथ्यों में, हम पाते हैं कि जांच एजेंसी/अधिकारी की ओर से इस तरह की चूक के लिए उसके माता-पिता को 10 लाख रुपये की राशि का अनुदान न्याय के सिरे को पूरा करेगा। "