स्वेच्छा से भुगतान न करने या विलफुल डिफाॅल्ट' के मामले की जांच कर रही इन-हाउस कमेटी के समक्ष वकील के जरिए पेश होने का अधिकार नहीं है उधारकर्ता के पास-सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]

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20 May 2019 10:41 AM GMT

  • स्वेच्छा से भुगतान न करने या विलफुल डिफाॅल्ट के मामले की जांच कर रही इन-हाउस कमेटी के समक्ष वकील के जरिए पेश होने का अधिकार नहीं है उधारकर्ता के पास-सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]

    ’’पहली समिति को अपना आदेश जितना जल्द हो सके उधारकर्ता को दे देना चाहिए। जिसके बाद उधारकर्ता 15 दिनों के अदंर समीक्षा समिति के समक्ष इस आदेश के खिलाफ अपना पक्ष पेश कर सकता है या प्रस्तुत कर सकता है।’’

    ''पहली समिति को अपना आदेश जितना जल्द हो सके उधारकर्ता को दे देना चाहिए। जिसके बाद उधारकर्ता 15 दिनों के अदंर समीक्षा समिति के समक्ष इस आदेश के खिलाफ अपना पक्ष पेश कर सकता है या प्रस्तुत कर सकता है।''

    सुप्रीम कोर्ट ने पाया है कि उधारकर्ता को बैंकों की उस इन-हाउस कमेटी के समक्ष अपना प्रतिनिधित्व वकील के जरिए पेश करने का अधिकार नहीं है,जो बैंक द्वारा यह देखने के लिए गठित की गई है िकवह 'स्वेच्छा से भुगतान न करने या विलफुल डिफाॅल्टर' है या नहीं।

    जस्टिस रोहिंटन फली नरीमन और जस्टिस विनित सरन की पीठ ने दिल्ली उच्च के उस फैसले को रद्द कर दिया है,जिसमें कहा गया था कि एक वकील के पास इस तरह की इन-हाउस समितियों के समक्ष अपने ग्राहक का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है।
    परंतु पीठ ने आरबीआई के परिशोधित या संशोधित सर्कुलर को संशोधित कर दिया और कहा कि पहली समिति को अपना आदेश जल्द से जल्द उधारकर्मा को देना होगा। ताकि उधारकर्ता 15 दिन के अंदर इस आदेश के खिलाफ समीक्षा समिति के समक्ष अपना पक्ष पेश कर सके या प्रस्तुत कर सके।
    इन-हाउस कमेटी की प्रक्रिया
    आरबीआई के परिशोधित या संशोधित सर्कुलर के अनुसार,कार्यकारी निदेशक व दो अन्य वरिष्ठ अधिकारियों की एक समिति द्वारा उधारकर्ता की ओर से 'स्वेच्छा से भुगतान न करने या विलफुल डिफाॅल्टर' के मामले की जांच करनी चाहिए। यदि समिति को पता चलता है कि विलफुल डिफाॅल्ट की कोई घटना हुई है तो उसे पहले संबंधित उधारकर्ता को कारण बताओ नोटिस जारी करना चाहिए और उसका पक्ष जानना चाहिए। उसके पक्ष पर विचार करने के बाद ही विलफुल डिफाॅल्ट के संबंध में आदेश देना चाहिए और उसके लिए कारण भी बताए जाए। किसी को व्यक्तिगत तौर पर पक्ष रखने का मौका उस स्थिति में दिया जा सकता है,जब समिति को लगे कि ऐसा किया जाना जरूरी है। जिसके बाद इस समिति के आदेश पर एक अन्य समिति विचार करेगी,जिसका अध्यक्षता चेयरमैन या प्रबंधकीय निदेशक या सीईओ कर रहा हो। इतना ही नहीं इस कमेटी में बैंक के दो स्वतंत्र निदेशक या गैर-कार्यकारी निदेशक भी होने चाहिए। वह आदेश तभी अंतिम रूप लेगा,जब इस समीक्षा समिति द्वारा भी उसे सही ठहराया जाएगा। उच्च अधिकारियों और स्वंतत्र निदेशकों वाली यह समीक्षा समिति पूरी तरह इन-हाउस होगी। परिशोधित या संशोधित सर्कुलर के अनुसार न तो पहली समिति का आदेश उधारकर्ता को दिया जाएगा,न ही इस आदेश के खिलाफ कोई प्रतिनिधित्व या पक्ष पेश करने की जरूरत होगी। न ही समीक्षा समिति के सामने कोई व्यक्तिगत सुनवाई को मौका दिया जाएगा।
    इन-हाउस समितियों में नहीं की जाती है कोई न्यायिक शक्ति निहित
    अदालत ने कहा कि इन-हाउस समितियों में किसी भी तरह की न्यायिक शक्ति निहित नहीं की जाती है। उनकी शक्ति प्रशासनिक होती है जो इन-हाउस कमेटियों को यह अधिकार देती है कि वह तथ्यों को एकत्रित कर सकें और फिर एक परिणाम पर पहुंच सके। पीठ ने कहा कि-
    ''यह नहीं कहा जा सकता है कि सर्कुलर किसी भी तरह से राज्य की न्यायिक शक्ति को इन-हाउस समितियों में निहित करता है। इस आधार पर दिल्ली हाईकोर्ट का दृष्टिकोण सही नहीं है और एडवोकेट एक्ट की धारा 30 के तहत किसी वकील के पास यह अधिकार नहीं है िकवह इन-हाउस समिति के समक्ष पेश हो सके। इसके अलावा उक्त समितियां भी कानूनी रूप से वैधानिक या अधीनस्थ कानून द्वारा सबूत लेने के लिए अधिकृत नहीं है और इस आधार पर भी,किसी वकील को एडवोकेट एक्ट की धारा 30 के तहत इनके समक्ष पेश होने का अधिकार नहीं है।''
    पहली समिति को देना होगा अपना आदेश उधारकर्ता को
    कोर्ट ने हालांकि देखा कि समिति में कार्यकारी निदेशक और दो अन्य वरिष्ठ अधिकारी शामिल है। ऐसे में पहली समिति होने के नाते,इसे अपना आदेश जितना जल्दी हो सके उधारकर्ता को देना होगा।
    ''उधारकर्ता फिर 15 दिन के अंदर इस आदेश के खिलाफ समीक्षा समिति के समक्ष अपना पक्ष पेश कर सकता है या रख सकता है।इस तरह के लिखित प्रतिनिधित्व तथ्यों व कानून(यदि कोई हो) पर एक पूर्ण प्रतिनिधित्व हो सकता है। समीक्षा समिति को उसके बाद इस प्रतिनिधित्व पर एक तर्कपूर्ण आदेश पारित करना होगा। जो उधारकर्ता को तामील करा दिया जाए।''
    पीठ ने आरबीआई के परिशोधित या संशोधित सर्कुलर में यह बदलाव किया है क्योंकि कोर्ट ने पाया है कि जैसे ही एक व्यक्ति को 'विलफुल डिफाॅल्टर' घोषित किया जाता है,इसका प्रभाव उसके व्यवसाय करने के मौलिक अधिकार पर प्रत्यक्ष व तत्काल होता है।
    ''यह इस कारण से है कि किसी भी बैंक या वित्तीय संस्थानों द्वारा कोई अतिरिक्त सुविधाएं नहीं दी जाती है,और उद्यमियों/प्रमोटरों को पांच साल के लिए संस्थागत वित से रोक दिया जाएगा। बैंक/वित्तीय संस्थान यहां तक कि 'विलफुल डिफाॅल्टर' के प्रबंधन को भी बदल सकते हैं। विलफुल डिफाॅल्टर के प्रमोटर/निदेशक को किसी अन्य उधारकर्ता कंपनी का प्रमोटर या निदेशक नहीं बनाया जा सकता है।समान रूप से,दिवाला और शोधन अक्षमता कोड 2016 की धारा 29एक के तहत,एक विलफुल डिफाॅल्टर एक संकल्प या समाधान आवदेक होने के लिए भी आवेदन नहीं कर सकता है। इन कठोर परिणामों को देखते हुए,यह स्पष्ट है कि संशोधित सर्कुलर को सार्वजनिक हित में थोड़ा उचित होना चाहिए।''

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