Begin typing your search above and press return to search.
मुख्य सुर्खियां

दया याचिका खारिज होने से पहले ही मौत की सज़ा पाए अभियुक्त को काल कोठरी में रखना है स्पष्ट रूप से अवैध-सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]

Live Law Hindi
9 May 2019 10:35 AM GMT
दया याचिका खारिज होने से पहले ही मौत की सज़ा पाए अभियुक्त को काल कोठरी में रखना है स्पष्ट रूप से अवैध-सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]
x

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि फांसी की सज़ा पाए एक अभियुक्त को उसकी दया याचिका खारिज होने से पहले ही काल-कोठरी या एकांतवास में रखना स्पष्ट रूप से अवैध है।

धर्मपाल को एक हत्या के मामले में फांसी की सज़ा दी गई थी। जिसे वर्ष 1999 में सुप्रीम कोर्ट ने भी सही ठहराया था।
उसने वर्ष 1999 में क्षमा याचना की मांग करते हुए याचिका दायर की,परंतु वर्ष 2013 में राष्ट्रपति ने उसकी इस क्षमा या दया याचिका को खारिज कर दिया।
बाद में पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट ने उसकी तरफ से दायर रिट पैटिशन को स्वीकार करते हुए उसकी फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया क्योंकि परिस्थितियों में बदलाव आ गया था। उसे एक दुष्कर्म के मामले में बरी कर दिया गया था। जिसने उसकी अपील पर निर्णय लेने में महत्वपूर्ण भूूमिका निभाई,वहीं उसकी दया याचिका पर भी राष्ट्रपति द्वारा लिए जाने वाले निर्णय में होने वाली देरी आदि अन्य आधार बने।
जब तक दया याचिका रद्द नहीं हो जाती है तब तक यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियुक्त ''फांसी की सजा''काट रहा है।

इन सब सुनवाई के दौरान केंद्र ने माना कि धर्मपाल लगभग 18 साल एकांतवास में रहा और अभी तक कुल 25 साल की सज़ा काट चुका है। सुनील बत्तरा मामले में दिए गए फैसले का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि जब सेशन कोर्ट किसी अभियुक्त को फांसी की सजा देती है तो उसकी पुष्टि हाईकोर्ट द्वारा की जाती है। इतना ही नहीं अगर हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के समक्ष सज़ा के खिलाफ अपील दायर की जाती है और वह अपील लंबित है तो भी यह नहीं कहा जा सकता है कि अभियुक्त ''फांसी की सजा'' काट रहा है। ऐसा सिर्फ उसकी दया याचिका को राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा खारिज करने के बाद ही कहा जा सकता है।
इस मामले में जस्टिस एन.वी रमाना,जस्टिस मोहन.एम शांतनागौड़र व जस्टिस एस.अब्दुल नजीर की पीठ ने कहा कि-
''जब तक राष्ट्रपति ने उसकी दया याचिका पर अपना फैसला नहीं दिया,उसे अलग-अलग जेल में एकांतवास में रखा गया। परंतु दया याचिका खारिज होने से पहले किसी को एकांतवास में रखना अवैध है। ऐसा करना उसे अलग से व अतिरिक्त सजा देने जैसा है,जो कि कानून में मान्य नहीं है। ऐसे में उसकी दया याचिका खारिज होने से पहले उसे एकांतवास में रखना,जबकि इस संबंध में यह कोर्ट कई फैसले दे चुकी है,दुर्भाग्यपूर्ण है और स्पष्ट तौर पर अवैध है। इस मामले में प्रतिवादी इतने साल तक एकांतवास में रह चुका है जबकि ऐसा तक हुआ,जब उसकी दया याचिका खारिज भी नहीं हुई थी। ऐसे में यह एक उपयुक्त मामला बनता है कि उसकी फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया जाए। हाईकोर्ट का फैसला एकदम सही है।''
फांसी की सजा पर अमल करने में बहुत ज्यादा देरी करना है मौलिक अधिकारों का उल्लंघन

कोर्ट ने हाईकोर्ट की उस टिप्पणी को भी सही ठहराय है,जिसमें कहा गया था कि फांसी की सज़ा पर अमल करने में बहुत ज्यादा देरी करना अमानवीय प्रभाव ड़ालता है। जो एक व्यक्ति को उसका जीवन अनुचित,अन्यायपूर्ण व अविवेकी तरीके से जीने से मजबूर करता है जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
दया याचिका पर विचार करते समय राष्ट्रपति के समक्ष रखे जाने चाहिए सभी जरूरी तथ्य

पीठ ने कहा कि उसे उस केस में बरी कर दिया गया,जो इस मामले में सज़ा देते समय महत्वपूर्ण तथ्य बना था। इसलिए यह तथ्य राष्ट्रपति के समक्ष उस समय लाया जाना चाहिए था जब वह दया याचिका पर विचार कर रहे थे।
जब कोई दया याचिका प्राप्त होती है तो संबंधित विभाग उस मामले से जुड़े सभी रिकार्ड व तथ्य का ब्यौरा मांगता है। जब मामले को राष्ट्रपति के समक्ष रखा जाए तो यह संबंधित अधिकारियों की जिम्मेदारी बनती है कि मामले से जुड़े सभी तथ्य पेश करे,जिसमें कोर्ट के फैसले व सजा से जुड़े अन्य कागजात व तथ्य शामिल है।
पीठ ने मामले के सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपना अंतिम निर्णय देते हुए कहा कि 35 साल की सजा पूरी होने के बाद अभियुक्त को रिहा कर दिया जाए। इसमें वह अवधि भी शामिल होगी,जो वह पहले ही काट चुका है।

Next Story