जब एक बार तलाक हो जाता है,तो उसके बाद घरेलू हिंसा कानून के तहत नहीं मांग सकते है राहत-बाॅम्बे हाईकोर्ट [निर्णय पढ़े]

Live Law Hindi

27 April 2019 12:46 PM IST

  • जब एक बार तलाक हो जाता है,तो उसके बाद घरेलू हिंसा कानून के तहत नहीं मांग सकते है राहत-बाॅम्बे हाईकोर्ट [निर्णय पढ़े]

    बाॅम्बे हाईकोर्ट ने माना है कि जब एक बार तलाक हो जाए तो उसके बाद पत्नी घरेलू हिंसा कानून के तहत कोई राहत नहीं मांग सकती है।

    जस्टिस एम.जी गिराटकर इस मामले में एक आपराधिक पुनःविचार अर्जी पर सुनवाई कर रहे थे। जो नागपुर निवासी एक 42 वर्षीय महिला ने दायर की थी। उसने प्रथम श्रेणी न्यायिक दंडाधिकारी कोर्ट के बीस अगस्त 2015 के आदेश को चुनौती दी थी। इस फैसले में याचिकाकर्ता पत्नी की तरफ से घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 की धारा 12 व 18 के तहत दायर अर्जी को खारिज कर दिया गया था।

    क्या था मामला

    याचिकाकर्ता की शादी प्रतिवादी पति के साथ 15 जुलाई 1999 को हुई थी। इस दंपत्ति के दो बच्चे है। इस मामले में प्रतिवादी पति ने पारिवारिक विवाद कोर्ट के समक्ष एक अर्जी दायर कर मांग की थी कि उसकी पत्नी को वापिस उसके साथ रहने का आदेश दिया जाए। हालांकि बाद में दोनों में समझौता हो गया और यह साथ रहने लगे।हालांकि बाद में प्रतिवादी पति ने पत्नी को साथ रहने का आदेश देने की मांग वाली अर्जी को हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 के तहत तलाक की अर्जी में तब्दील कर दिया। पारिवारिक विवाद कोर्ट यानि फैमिली कोर्ट ने इस अर्जी को स्वीकार करते हुए तीस जून 2008 को तलाक दे दिया। वर्ष 2009 में घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 व 18 के तहत याचिकाकर्ता पत्नी ने एक अर्जी दायर की और आरोप लगाया कि उसका पति उसे प्रताड़ित करता है। प्रतिवादी पति ने इस अर्जी को विरोध करते हुए कहा कि जिस समय यह अर्जी दायर की गई है,उस समय उनके बीच कोई घरेलू संबंध नहीं था। वह उसके साथ नहीं रहती थी। अब वह उसने पत्नी नहीं है क्योंकि तलाक हो चुका है। इसलिए प्रतिवादी पत्नी की अर्जी को खारिज किया जाए।

    नागपुर की जेएमएफसी ने अपने बीस अगस्त 2015 के फैैसले के तहत इस अर्जी को खारिज कर दिया। जिसके बाद अतिरिक्त सत्र न्यायालय,नागपुर के समक्ष अपील दायर की गई। इस कोर्ट ने भी माना कि दोनों के बीच कोई घरेलू संबंध नहीं है। इसलिए डीवी एक्ट के तहत दायर अर्जी स्वीकार नहीं की जा सकती है।

    फैसला

    याचिकाकर्ता पत्नी की तरफ से पेश वकील ए.ए घोंगे पेश हुए और प्रतिवादी पति की तरफ से वकील आर.एन सेन।

    याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि यह सही है कि उसकी मुविक्कल का तलाक हो चुका है। परंतु फिर भी वह डीवी एक्ट के तहत राहत मांग सकती है। उसने सुप्रीम कोर्ट द्वारा जुवेरिया अब्दुल माजिद पटनी बनाम अतिफ इकबाल मंसूरी व अन्य में दिए गए फैसले का हवाला भी दिया।

    हालांकि कोर्ट ने साफ करते हुए कहा िकइस फैसले को सुप्रीम कोर्ट की दूसरी पीठ ने इंद्रजीत सिंह ग्रेवाल बनाम स्टेट आॅफ पंजाब व अन्य के मामले में देखा था। जिसके बाद पाया था िकइस केस में घरेलू हिंसा हुई है। वहीं पति व उसके परिजनो के खिलाफ आईपीसी की धारा 498ए व 406 के तहत प्राथमिकी भी दर्ज हुई थी। उसके बाद पत्नी ने मुफती से मुस्लिम पर्सनल लाॅ के तहत एक तरफा खुला यानि तलाक ले लिया था। उसके बाद डीवी एक्ट की धारा 12 के तहत एक अर्जी दायर की थी। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई योग्य माना था।

    कोर्ट की टिप्पणी

    इस मामले में याचिकाकर्ता उस दिन से प्रतिवादी की पत्नी नहीं है,जिस दिन उनको तलाक दे दिया गया था। उनके बीच तीस जून 2008 को तलाक हो चुका है। ऐसे में उस दिन के बाद से उनके बीच पति-पत्नी का रिश्ता नहीं रहा। इसलिए जब यह अर्जी दायर की गई,तब उनके बीच कोई रिश्ता नहीं था। हाईकोर्ट के कई अन्य फैसलों का हवाला देते हुए जस्टिस गिराटकर ने कहा कि-

    इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि जब तीस जून 2008 को पारिवारिक विवाद कोर्ट ने तलाक का फैसला दिया,उस दिन से याचिकाकर्ता अब प्रतिवादी की पत्नी नहीं रही है। आज तक उस आदेश को अपीलेट कोेर्ट ने रद्द नहीं किया है। ऐसे में साफ है कि जिस समय वर्ष 2009 में डीवी एक्ट के तहत अर्जी दायर की गई,उन दोनों के बीच पति-पत्नी का रिश्ता नहीं था। इसलिए यह अर्जी मान्य नहीं है।

    अंत में कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा हरबंस लाल मलिक बनाम पायल मलिक के मामले में दिए फैसले का हवाला देते हुए कहा कि-इस मामले में जिस दिन अर्जी दायर की गई,उस समय उनके बीच में कोई घरेलू संबंध नहीं था। इसलिए याचिकाकर्ता पत्नी डीवी एक्ट के तहत कोई सुरक्षा नहीं मांग सकती है।

    उस फैसले में दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा था कि-डीवी एक्ट की धारा 12 के तहत किसी व्यक्ति को प्रतिवादी बनाने के लिए याचिकाकर्ता व प्रतिवादी के बीच घरेलू संबंध होना चाहिए। अगर याचिकाकर्ता व प्रतिवादी के बीच कोई घरेलू संबंध नहीं है तो महानगर दंडाधिकारी की कोर्ट इस एक्ट के तहत प्रतिवादी के खिलाफ कोई आदेश नहीं दे सकती है।

    इसलिए पुनःविचार याचिका को खारिज किया जाता है।


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