जब राज्य की एजेंसी नहीं साबित कर पाती है आरोपी का आरोप,तो कोर्ट का कर्त्तव्य बनता है करे न्याय-बाॅम्बे हाईकोर्ट [निर्णय पढ़े]
Live Law Hindi
13 April 2019 11:46 AM IST
हाईकोर्ट ने कहा कि-समय आ गया है कि पीड़ित के अधिकारों की भी रक्षा की जाए
बाॅम्बे हाईकोर्ट ने बांद्रा,मुम्बई के रहने वाले एक 25 वर्षीय युवक खलील शेख को राहत देने से इंकार कर दिया है। शेख को बच्चों के खिलाफ होने वाले यौन शोषण के मामलों की सुनवाई के लिए गठित विशेष कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 323 व 377 के तहत दोषी करार देते हुए क्रमशःएक साल कैद व दस साल कैद की सजा दी थी। शेख को पाॅक्सो एक्ट 2012 की धारा 6 के तहत भी दोषी करार देते हुए दस साल कैद की सजा दी गई थी। साथ ही उसको निर्देश दिया गया था िकवह पीड़ित को दस हजार रुपए मुआवजे के तौर पर दे। यह फैसल 27 फरवरी 2014 का है। इसी आदेश को शेख ने चुनौती दी थी। मामले की सुनवाई जस्टिस एस.एस जाधव की कोर्ट में आई थी। कोर्ट ने इस मामले में अपने बीस पेज का फैसला जनवरी में दिया था,परंतु इसे पिछले दिनों ही हाईकोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड किया गया है।
क्या था मामला
अभियोजन पक्ष के अनुसार 14 फरवरी 2013 सुजीत मोने पेट्रोलिंग ड्यूटी पर था। तभी उसे निर्मल नगर पुलिस स्टेशन से एक फोन आया कि कुछ संदिग्ध लोग रेलवे कालोनी की एक इमारत की छत पर घुस गए है। जब मोने अन्य पुलिसकर्मियों के साथ उस इमारत की छत पर पहुंचा तो उन्होंने पाया कि पीड़ित नग्न अवस्था में रो रहा था और चिल्ला रहा था,वहीं आरोपी उसके साथ अप्राकृतिक काम कर रहे थे। जिसके बाद आरोपियों को गिरफतार कर लिया गया था।
फैसला
कोर्ट ने पाया कि पीड़ित ने निचली अदालत के समक्ष बताया था क वह 16 साल का है और उसके दादा-दादी ने उसे पाला है क्योंकि उसके माता-पिता की मौत हो चुकी है। उसने बताया कि वह अपने दादा-दादी के साथ मुम्बई घूमने आया था।13 फरवरी 2013 को वह रात को करीब साढ़े दस बजे बोरेवाली रेलवे स्टेशन पर खाने के लिए ट्रेन से उतरा था,परंतु उससे ट्रेन छूट गई। जिसके बाद वह अगले दिन 14 फरवरी को बांद्रा स्टेशन पहुंचा। वहीं पर आरोपियों ने उसे पैसे का लालच देकर बहलाया-फुसलाया और उसे पास की इमारत में ले गए। जिसके बाद उसके साथ अप्राकृतिक कृत्य किया गया। वकील अबाद पांडा आरोपी की तरफ से पेश हुए और एपीपी एस.एस पेडनेकर इस मामले में राज्य सरकार की तरफ से। पीड़ित को जिरह के दौरान दिए गए सुझावों से कोर्ट प्रसन्न नहीं हुआ और कहा कि- पीड़ित से काफी लंबी जिरह की गई और सवाल पूछे गए। परंतु बचाव पक्ष उसके बयान को गलत साबित नहीं कर पाया।पीड़ित को बेकार के सुझाव दिए गए और उससे कहा गया कि वह इस तरह के गलत काम करके ही पैसा कमाता है। इसी के सहारे अपनी गुजर-बसर कर रहा है। परंतु पीड़ित ने इस सुझाव को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। उसे घटना के अगले दिन अस्पताल ले जाया गया था। यह कहने की जरूरत नहीं है कि यह सुझाव मामले के तथ्यों के आधार पर दिया गया था।
डाक्टर अमरसिंह आंनदराॅव राठौड़ ने इस पीड़ित का परीक्षण किया था और उनके अनुसार पीड़ित की उम्र 15 साल थी। वहीं डाक्टर ने विशेष तौर पर बताया कि पीड़ित की उम्र 15 से 16 साल के बीच थी। डाक्टर ने यह बयान पीड़ित की एक्सरे रिपोर्ट व ओसिफिकेशन टेस्ट यानि उसकी हड्डियों के टेस्ट के आधार पर दिया था।
जस्टिस जाधव ने टिप्पणी करते हुए कहा कि जांच एजेंसी इस मामले में पीड़ित के स्कूल का सर्टिफिकेट रिकवर करने में नाकाम रही,जिससे पीड़ित की सही उम्र का पता लगाया जा सकता था। जांच एजेंसी ने पूरे मामले में संवेदनहीनता का परिचय दिया और उनके पास बस पीड़ित का ओसिफकेशन टेस्ट यानि उसकी हड्डियों के टेस्ट की रिपोर्ट बतौर सबूत थी। जांच अधिकारी ने घटना स्थल का पंचनामा भी तैयार नहीं किया। न ही मामले की जांच अधिकारी ने उस इमारत में रहने वालों के बयान दर्ज किए।
कोर्ट ने अंतिम टिप्पणी करते हुए कहा कि-
ऐसा लग रहा है िकइस मामले में बचाव पक्ष की दलील व विवाद का मुद्दा पीड़ित की उम्र है। जिसके आधार पर पाॅक्सो 2012 के प्रावधानों के तहत सजा से बचने की कोशिश की जा रही है। चूंकि इस एक्ट के सेक्शन 5 के अनुसार न्यूनतम दस साल कैद की सजा का प्रावधान है,जबकि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत उम्रकैद या दस साल तक की कैद की सजा का प्रावधान है और जुर्माना भी किया जा सकता है।
कोर्ट ने कहा कि आपराधिक न्यायप्रणाली का मूल तत्व यह है कि जब तक अपराध साबित न हो जाए,तब तक आरोपी को निर्दोष माना जाता है। कई मामलों में आरोपी को संदेह का लाभ दे दिया जाता है। परंतु समय आ गया है कि पीड़ित के हित की भी रक्षा की जाए। जब राज्य की एजेंसी अपनी ड्यूटी ठीक से नहीं कर पाई ओर आरोपी के खिलाफ संदेह से परे अपने केस को साबित नहीं कर पाई है। अगर जांच के दौरान या मामले की सुनवाई के दौरान कुछ लापरवाही की गई हो तो ऐसे में यह कोर्ट की ड्यूटी बन जाती है िक वह देखे के पीड़ित के साथ भी न्याय होना चाहिए।
इसलिए यह कोर्ट आरोपी की अपील को खारिज करती है। आरोपी के वकील की उस मांग को खारिज किया जाता है,जिसमें पाॅक्सो एक्ट के तहत दी गई सजा को रद्द करने की मांग की गई थी। आरोपी के वकील ने दलील दी थी कि जांच एजेंसी पीड़ित का जन्म प्रमाण पत्र पेश नहीं कर पाई थी। इसलिए पाॅक्सो एक्ट को हटा दिया जाना चाहिए। इसके विपरीत कोर्ट पाॅक्सो एक्ट के सेक्शन 6 के तहत दी गई दस साल की सजा को उचित ठहराती है। हालांकि पाॅक्सो एक्ट के सेक्शन 42 का हवाला देते हुए कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत दी गई दस साल की सजा को रद्द कर दिया है। आरोपी अब तक इस मामले में पांच साल दस महीने कैद की सजा भुगत चुका है। उसे अपनी दस साल की सजा पूरी करनी होगी।