कंप्टीशन आॅफ सीरियस फ्राॅड इंवेस्टिगेशन के लिए कंपनी अधिनियम नहीं निर्धारित करता है कोई समयसीमा-सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]

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3 April 2019 6:53 AM GMT

  • कंप्टीशन आॅफ सीरियस फ्राॅड इंवेस्टिगेशन के लिए कंपनी अधिनियम नहीं निर्धारित करता है कोई समयसीमा-सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि कंपनी अधिनियम 2013 के सेक्शन 212 के सब-सेक्शन(3) के तहत कोई रिपार्ट दायर करने के लिए तय की गई समयसीमा निर्देशिका के तौर पर है,न कि अनिवार्य तौर पर।

    जस्टिस ए.एम सापरे व जस्टिस यू.यू ललित की खंडपीठ इस मामले में दायर एक अपील पर सुनवाई कर रही थी। इस अपील को सीरियल फ्राॅड इंवेस्टिगेशन आॅफिस ने दिल्ली हाईकोर्ट के एक आदेश के खिलाफ दायर किया था। हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि जब जांच का समय खत्म हो जाए,उसके बाद गिरफतार करना अवैध है।

    सेक्शन 212(3) के अनुसार जब किसी कंपनी से जुड़े मामले की जांच केंद्र सरकार द्वारा सीरियल फ्राॅड इंवेस्टिगेशन आॅफिस को दी जाती है तो वह जांच इस सेक्शन के चैप्टर तहत दिए गए तरीके व प्रक्रिया से की जाए। वहीं मामले की जांच की रिपोर्ट उस समय अवधि में केंद्र सरकार को दे दी जाए,जो आदेश में दी गई है।

    जस्टिस ललित ने सेक्शन 212 का निरीक्षण करने के बाद कहा कि सेक्श 212 के सब-सेक्शन(3) के तहत रिपोर्ट दायर करने के लिए जो अवधि निर्धारित की गई है उससे जांच की समय सीमा खत्म नहीं होती है। वहीं उस अवधि के पूरा होने के बाद भी सीरियल फ्राॅड इंवेस्टिगेशन आॅफिस को मिला आदेश भी खत्म नहीं होता है।

    अगर वह अवधि खत्म भी हो जाता है तो विधि निर्माण या कानून से यह अपेक्षित किया जाता है कि वह निर्देश दे कि मामले के परिणाम व सारे रिकार्ड वापिस मूल जांच एजेंसी के पास भेज दे। ऐसा निर्देश सेक्शन 212 के सब-सेक्शन (2) के तहत दिया जा सकता है। परंतु अगर कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है कि तो हमारा मानना है कि समय अवधि खत्म होने के बाद भी यह नहीं माना जा सकता है कि सीरियस फ्राॅड इंवेस्टिगेशन आॅफिस को दिया गया आदेश खत्म हो गया है क्योंकि ऐसा किया गया तो कानून की योजना को गहरा नुकसान पहुंचेगा। अगर इस तरह की व्याख्या को स्वीकार कर लिया जाए और सेक्शन 212 के सब-सेक्शन (2) के तहत मामले की जांच वापिस मूल जांच एजेंसी के पास भेज दी जाए तो मूल एजेंसी के पास जांच की पाॅवर होगी नहीं और आदेश की अवधि खत्म होने के बाद सीरियस फ्राॅड इंवेस्टिगेशन आॅफिस(एसएफआईओ) भी मामले की जांच नहीं कर पाएगा,जिससे एक अजीब सी स्थिति उत्पन्न हो जाएगी और गंभीर धोखेबाजी के मामले की जांच ही नहीं हो पाएगी।

    कोर्ट ने कहा कि -

    - एक्ट 2013 के सेक्शन 212 के सब-सेक्शन (2) के तहत मामले की पूरी जांच एसएफआईओ को भेजी जाती है और इस तरह जांच को भेजते समय मामले के सारे कागजात व रिकार्ड भी एसएफआईओ को भेजे जाने जरूरी होते है।

    -सेक्शन 212 के सब-सेक्शन(12) के तहत जांच को पूरी करने के लिए कोई निश्चित अवधि निर्धारित नहीं की गई है।

    -सेक्शन 212 के सब-सेक्शन(11) के अनुसार अंतरिम रिपोर्ट दायर की जा सकती है या जैसा आदेश दिया गया हो।

    जांच को पूरा करने के लिए नहीं है कोई निश्चित अवधि निर्धारित

    कोर्ट ने कहा कि एक्ट 2013 के सेक्शन 212(3) के तहत ऐसी कोई ऐसी समय अवधि निर्धारित नहीं की गई है,जिसके तहत जांच रिपोर्ट करने को कहा गया हो।

    इतना ही नहीं सब-सेक्शन (12) जिसके तहत जांच रिपोर्ट के बारे में कहा गया है,उसमें भी इसके लिए कोई समयअवधि निर्धारित नहीं की गई है। इस सेक्शन के अनुसार जांच पूरी होने के बाद रिपोर्ट दायर की जा सकती है। परंतु जांच रिपोर्ट दायर करने के लिए कोई निश्चित अवधि नहीं दी गई है।

    सीआरपीसी के प्रावधानों के बारे में व्याख्या देते हुए कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी के तहत भी ऐसी कोई अवधि निर्धारित नहीं की गई है,जिसके तहत जांच पूरी की जानी जरूरी है। अगर मामले की जांच बहुत लंबी चल जाती है तो कोड के सेक्शन 167 के तहत आरोपी को कुछ अधिकार मिल जाते है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि अगर निर्धारित अवधि में जांच पूरी न हो तो मामले की जांच करने का अधिकार खत्म हो जाता है।

    जस्टिस सापरे ने अपने सहमति वाले विचार देते हुए कहा कि -अगर मामले के प्रतिवादियों (रिट पैटिशनर) द्वारा दी गई इस दलील को स्वीकार कर लिया जाए कि एक्ट के सेक्शन 212 के सब-सेक्शन(3)के तहत रिपोर्ट दायर किया जाना जरूरी है तो हमारा मानना है कि एक्ट के सेक्शन 212 को बनाने का उद्देश्य ही खत्म हो जाएगा।इसलिए यह दलील हम स्वीकार नहीं कर सकते है।


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