अगर संदेह का लाभ देकर किया गया हो बरी,तो इस आधार पर नहीं कह सकते है कि कर्मचारी या उम्मीदवार का आपराधिक रिकार्ड है क्लीयर-सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]

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2 April 2019 8:30 AM GMT

  • अगर संदेह का लाभ देकर किया गया हो बरी,तो इस आधार पर नहीं कह सकते है कि कर्मचारी या उम्मीदवार का आपराधिक रिकार्ड है क्लीयर-सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़े]

    ''इस आपराधिक मामले को क्लीयर या पूरी तरह बरी का केस नहीं कहा जा सकता है क्योंकि आरोपी को संदेह का लाभ देकर बरी किया गया था,न कि उसके खिलाफ दायर केस को झूठा पाया गया था।''

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर किसी कर्मचारी या उम्मीदवार को आपराधिक मामले में संदेह का लाभ देकर बरी किया गया है तो यह नहीं कहा जा सकता है कि उसका आपराधिक रिकार्ड क्लीयर है। क्योंकि उसे संदेह का लाभ देकर बरी किया गया है,न कि उसके खिलाफ दर्ज केस को झूठा पाया गया है।

    स्क्रीनिंग कमेटी ने बंटी नामक युवक को मध्यप्रदेश पुलिस में बतौर कांस्टेबल नियुक्त करने के लिए अनफिट पाया गया था क्योंकि उसके खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 392 व 411 के तहत केस दर्ज हुआ था। हालंकि इस केस में उसे बरी कर दिया गया था।

    बंटी की याचिका को स्वीकार करते हुए मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता को मामले के तथ्य देखते हुए बरी कर दिया गया था क्योंकि उसके खिलाफ संदेह से परे केस साबित नहीं हुआ था।इसलिए उसकी नियुक्ति का आदेश दिया गया था।

    राज्य सरकार ने इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर दी और दलील दी कि बंटी को संदेह का लाभ देकर बरी किया गया था,इसलिए इस आधार पर वह नियुक्ति पाने का हकदार नहीं बनता है।

    मामले के तथ्यों को देखने के बाद जस्टिस अरूण मिश्रा व जस्टिस नवीन सिन्हा की खंडपीठ ने कहा कि-

    मामले में लगाए गए आरोप की प्रकृति को देखते हुए पाया गया है कि यह केस भेष बदलकर खुद को पुलिसकर्मी बताने का था। इसलिए आईपीसी की धारा 392 व 411 के तहत केस दर्ज हुआ था। यह एक गंभीर किस्म का केस था। जिसमें नैतिक भ्रष्टता शामिल था। वहीं मामले में क्लीयर बरी भी नहीं किया गया था क्योंकि उसे संदेह का लाभ देते हुए बरी किया था। ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रतिवादी का आपराधिक रिकार्ड बिल्कुल साफ है। ऐसे में स्क्रीनिंग कमेटी का यह फैसला पूरी तरह सही है कि प्रतिवादी को अनुशासनात्मक पुलिस फोर्स में भर्ती करना उचित नहीं होगा।

    ऐसे मामलों में पूर्व में दिए गए फैसलों का हवाला देते हुए बेंच ने कहा कि अगर किसी को किसी आपराधिक मामले में संदेह का लाभ देकर बरी किया गया है तो ऐसे मामले में नियोक्ता इस तरह के व्यक्ति को नियुक्त करने से पहले अन्य सभी तथ्यों को ध्यान में रख सकता है। जिसके आधार पर यह निर्णय लिया जा सकता है िकइस व्यक्ति को नौकरी पर रखना है या नहीं।

    कोर्ट ने कहा कि प्रतिवादी को उसके खिलाफ लंबित केस की जानकारी थी। और यह कोई असामान्य बात नहीं हैकि अक्सर गवाह मुकर जाते है। ऐसे में इस केस को क्लीयर या स्पष्ट बरी का केस नहीं कहा जा सकता है। इस आपराधिक मामले में प्रतिवादी को संदेह का लाभ दिया गया था। इसलिए इस तरह के बरी के मामले के आधार पर नियुक्ति कर ली जाए,यह जरूरी नहीं हैं।


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