'एलके पांडेय मामले में सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देश पर्सनल लॉ के तहत गोद लेने पर लागू नहीं होते हैं?' सुप्रीम कोर्ट विचार करेगा

LiveLaw News Network

21 Jun 2021 3:51 AM GMT

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    Supreme Court of India

    सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एक मामले में बच्चे को चाइल्ड वेलफेयर कमेटी (सीडब्लूसी) की देखभाल से बाहर निकालकर दत्तक माता-पिता को अंतरिम कस्टडी सौंपी। दरअसल, इस मामले में जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के नियमों का पालन किए बिना 2 साल की बच्ची को उसकी जैविक मां द्वारा एक कपल को नोटरीकृत दस्तावेज निष्पादित करके गोद दिया गया था।

    न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति वी. रामासुब्रमण्यम की अवकाश पीठ बंबई उच्च न्यायालय के मार्च के उस आदेश के खिलाफ दत्तक माता-पिता की ओर से दायर (विशेष अनुमति याचिका) एसएलपी की सुनवाई कर रही थी, जिसमें कहा गया था कि केवल एक नोटरीकृत दस्तावेज को दत्तक ग्रहण डीड के रूप में निष्पादित करके याचिकाकर्ता यह दावा नहीं कर सकते कि उनके पास बच्ची की कस्टडी रखने का अधिकार है।

    याचिकाकर्ता ने दावा किया कि लड़की की जैविक मां ने स्वेच्छा से बच्चे को गोद लेने के लिए दिया था। चाइल्ड वेलफेयर कमेटी (सीडब्ल्यूसी) द्वारा बच्चे को ले जाने और एक बाल देखभाल संस्थान में रखे जाने के बाद बंदी प्रत्यक्षीकरण के एक रिट के माध्यम से उसने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।

    यह प्रस्तुत किया गया कि हिंदू दत्तक ग्रहण अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार वैध गोद लेने की आवश्यकताएं पूरी तरह से संतुष्ट थीं और इसलिए याचिकाकर्ता जेजे अधिनियम की धारा 56 (3) के तहत सुरक्षा का लाभ उठाने का हकदार है, जो प्रदान करता है कि कुछ भी नहीं अधिनियम हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के तहत बच्चों को गोद लेने पर लागू होगा।

    याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि जेजे अधिनियम के प्रावधान वर्तमान मामले पर लागू नहीं होंगे और इसलिए सीडब्ल्यूसी के समक्ष पूरी कार्यवाही कानून के अनुसार नहीं हुई और सीडब्ल्यूसी के पास बच्चे की कस्टडी लेने के लिए आगे बढ़ने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है।

    हाईकोर्ट ने कहा कि उक्त दस्तावेज कहीं भी यह इंगित नहीं करता है कि दत्तक ग्रहण हिंदू दत्तक ग्रहण अधिनियम के प्रावधानों के तहत है और यह इंगित करने के लिए रिकॉर्ड पर कुछ भी नहीं रखा गया है कि वैध दत्तक ग्रहण से संबंधित हिंदू दत्तक ग्रहण अधिनियम की आवश्यकताओं का अनुपालन किया गया था।

    हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि लड़की को जेजे अधिनियम के उद्देश्य के लिए देखभाल और सुरक्षा की जरूरत है और यह माना कि सीडब्ल्यूसी ने कानून के जनादेश के अनुसार काम किया है और सीडब्ल्यूसी की कस्टडी को अनुचित या अवैध नहीं कहा जा सकता है।

    सुप्रीम कोर्ट के समक्ष याचिकाकर्ता-दंपति ने प्रस्तुत किया कि चूंकि दोनों पक्ष हिंदू कानून द्वारा शासित हैं, इसलिए बच्चे को हिंदू दत्तक और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के प्रावधानों के अनुसार गोद लिया गया था। बच्चे को गोद देने और लेने की शर्तें, गवाहों की उपस्थिति में दत्तक धार्मिक समारोह करना और गोद लेने के डीड को निष्पादित करना जो गवाहों द्वारा हस्ताक्षरित और नोटरीकृत है। जेजे अधिनियम की प्रक्रियात्मक तौर-तरीकों के तहत गोद लेने के नियम का अनुपालन में नहीं होने के कारण उच्च न्यायालय ने बच्चे की कस्टडी वापस ले ली।

    न्यायमूर्ति रामसुब्रमण्यम ने याचिकाकर्ता-कपल की ओर से पेश वरिष्ठ वकील से कहा कि,

    "इस अदालत ने अनोखा बनाम राजस्थान राज्य में माना है कि एलके पांडे दिशानिर्देश निजी गोद लेने पर लागू नहीं होते हैं, जहां बच्चे को जैविक माता-पिता द्वारा गोद लेने के लिए दिया जाता है।"

    सर्वोच्च न्यायालय ने लक्ष्मी कांत पांडे बनाम भारत संघ में अंतर्देशीय और अंतरादेशीय दत्तक ग्रहण को विनियमित करने के लिए एक संपूर्ण योजना तैयार की।

    कोर्ट ने अनोखा बनाम राजस्थान राज्य (2004) में माना था कि अपने जैविक माता-पिता के साथ रहने वाले बच्चों को गोद लेने के मामलों में प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों पर जोर देने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि प्राकृतिक माता-पिता बच्चे के सर्वोत्तम हित का न्याय करने के लिए सबसे अच्छे हैं।

    न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि,

    "यह सबसे दुर्भाग्यपूर्ण है कि यह बच्चा न तो आपके पास है, न ही जैविक मां के पास बच्चा है, लेकिन बच्चा बाल देखभाल केंद्र के अंतर्गत रखा गया है। आम तौर पर एक बच्चा प्राकृतिक घटनाओं से अनाथ हो जाता है, लेकिन यहां बच्चे को अदालत के आदेश ने अनाथ किया है। "

    जैविक मां (एसएलपी में प्रतिवादी संख्या 3) की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता सलमान खुर्शीद ने कहा कि यह बहुत ही मजबूर परिस्थितियों में गोद लिया गया था और उन्होंने जो भी दिशा-निर्देश दिए, उनका पालन किया गया था, लेकिन अगर गोद लेना गलत पाया गया है तो मुझे मेरा बच्चा वापस चाहिए। अगर कुछ भी हल नहीं किया जा सकता है तो मुझे अपना बच्चा वापस चाहिए।

    न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा कि,

    "जहां तक आपका सवाल है, गोद लेने का काम खत्म हो गया है। आप इसे पूर्ववत नहीं कर सकते।"

    बेंच ने इसके बाद अपना आदेश सुनाना शुरू किया। बेंच ने नोट किया कि याचिकाकर्ताओं के वकील अनोखा (श्रीमती) बनाम राजस्थान राज्य और अन्य (2004) 1 एससीसी 382 पर भरोसा जताया और तर्क दिया कि व्यक्तिगत कानून के तहत गोद लेने को एलके पांडे बनाम भारत संघ एआईआर 1984 मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए दिशानिर्देशों को लागू नहीं किया जाएगा।

    पीठ ने एसएलपी पर नोटिस जारी करते हुए निर्देश दिया कि,

    "इस बीच बच्चे की कस्टडी याचिकाकर्ताओं को सौंप दी जाए।"

    पीठ ने कहा कि,

    "अगर याचिकाकर्ताओं को बच्चे की कस्टडी दी जाती है तो जैविक मां को कोई आपत्ति नहीं है।"

    हाईकोर्ट के समक्ष कार्यवाही

    बॉम्बे हाईकोर्ट के समक्ष याचिकाकर्ता बंदी प्रत्यक्षीकरण के एक रिट और एक परिणामी निर्देश की मांग कर रहा था कि उक्त बच्ची को प्रतिवादी-सीडब्ल्यूसी द्वारा उन्हें सौंप दिया जाए। रिकॉर्ड पर रखे गए दस्तावेज विशेष रूप से सीडब्ल्यूसी द्वारा रिकॉर्ड पर लाए गए दस्तावेजों से पता चला है कि प्रतिवादी संख्या 3 यानी बच्चे की जैविक मां ने बच्चे के जन्म के तुरंत बाद अपनी राय व्यक्त की थी कि उसे लड़की की देखभाल करने में कोई दिलचस्पी नहीं है। उसने इस संबंध में एक एनजीओ से संपर्क किया था, जिसने सीडब्ल्यूसी को सूचना दी थी।

    कोर्ट ने कहा था कि जिस क्षण यह दिखाने के लिए सामग्री है कि बच्चा ऐसी स्थिति में है जहां माता-पिता द्वारा उसकी जरूरतों की देखभाल करने की संभावना नहीं है, ऐसे बच्चे को जुवेनाइल जस्टिस एक्ट की धारा 2 (14)(v) के तहत परिभाषित देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता होती है। नतीजतन, सीडब्ल्यूसी के पास उक्त बालिका के संदर्भ में आवश्यक कार्रवाई करने की शक्ति और जिम्मेदारी है।

    कोर्ट ने आदेश में कहा था कि एनजीओ के प्रतिनिधियों (सीडब्ल्यूसी द्वारा निर्देशित) के एक दौरे पर प्रतिवादी संख्या 3 द्वारा याचिकाकर्ताओं को बच्ची देने के बारे में तथ्य सामने आया। प्रतिवादी संख्या 3 ने कहा कि उसने बच्चे को दे दिया था और उसे याचिकाकर्ताओं से राशि प्राप्त हुई थी। यह प्रथम दृष्टया बच्चे को बेचे जाने का मामला प्रतीत होता है और इसलिए किशोर न्याय अधिनियम की धारा 80 के तहत याचिकाकर्ता नंबर 1 और प्रतिवादी नंबर 3 के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई। याचिकाकर्ताओं से बच्ची की कस्टडी से वापस ले ली गई और उसे वात्सल्य ट्रस्ट को सौंप दिया गया, जो एक मान्यता प्राप्त विशेष दत्तक एजेंसी है।

    याचिकाकर्ताओं ने प्रतिवादी संख्या 3 द्वारा बच्चे को गोद लेने में कथित तौर पर स्वेच्छा से देने और पक्षकारों के बीच निष्पादित परिणामी दत्तक ग्रहण डीड पर अपना दावा आधारित किया। उक्त दस्तावेज़ के अवलोकन से उच्च न्यायालय को पता चला कि यह केवल एक नोटरीकृत दस्तावेज़ है।

    पीठ ने कहा था कि,

    "हमने उपरोक्त नोटरीकृत दस्तावेज़ पर विचार किया है, जिसे दत्तक ग्रहण डीड के रूप में माना जाता है। इसके साथ ही किशोर न्याय अधिनियम की धारा 56 (3) पर भरोसा करके याचिकाकर्ताओं की ओर से उठाए गए तर्कों पर भी विचार किया गया है। हम पाते हैं कि उक्त दस्तावेज़ कहीं भी इंगित नहीं करता है कि दत्तक ग्रहण हिंदू दत्तक ग्रहण अधिनियम के प्रावधानों के तहत है। यह इंगित करने के लिए रिकॉर्ड पर कुछ भी रखा नहीं गया है कि वैध दत्तक ग्रहण से संबंधित हिंदू दत्तक ग्रहण अधिनियम की आवश्यकताओं का अक्षरश: पालन किया गया था। यह केवल पूर्वोक्त प्राथमिकी के आने के बाद हुआ है और याचिकाकर्ता नंबर 1 के खिलाफ दर्ज किया गया है कि इस तरह का स्टैंड पहली बार इस अदालत के समक्ष लिया गया है।"

    अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि केवल एक नोटरीकृत दस्तावेज को दत्तक ग्रहण डीड के रूप में निष्पादित करके याचिकाकर्ता यह दावा नहीं कर सकते कि उनके पास बच्ची की कस्टडी रखने का अधिकार है। यह विशेष रूप से इस तथ्य की पृष्ठभूमि में है कि प्रतिवादी संख्या 3 अर्थात बच्चे की जैविक मां ने स्वयं विशेष रूप से स्वीकार किया है कि प्रतिवादी संख्या 2-सीडब्ल्यूसी के निर्देश पर जब एनजीओ के प्रतिनिधि उसके घर गए थे तबत उसने अपनी बच्ची को सौंप दिया था और 20,000/- रुपये लिए थे और दूसरी ओर जब वह प्रतिवादी संख्या 2-सीडब्ल्यूसी के सामने पेश हुई और कहा कि उसने याचिकाकर्ताओं से 40,000/- रुपये प्राप्त किए हैं और बच्ची को उसे सौंप दिया है।

    कोर्ट ने कहा था कि,

    "हमारे दिमाग में कोई संदेह नहीं है कि बच्चा वास्तव में किशोर न्याय अधिनियम की धारा 2(14)(v) में परिभाषित देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता है। किशोर न्याय अधिनियम के प्रावधानों का एक अवलोकन यह है कि किशोर न्याय अधिनियम की धारा 30 के तहत प्रतिवादी संख्या 2-सीडब्ल्यूसी को ऐसे बच्चों के संबंध में उचित जांच सुनिश्चित करने की आवश्यकता है, जिन्हें देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता है, ताकि उनकी सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित हो सके। इसलिए इस मामले में प्रतिवादी संख्या 2-सीडब्ल्यूसी का बच्ची को विशेष दत्तक एजेंसी यानी वात्सल्य ट्रस्ट भेजना न्यायोचित है।

    कोर्ट ने आगे कहा था कि,

    "यहां यह ध्यान रखना प्रासंगिक है कि किशोर न्याय अधिनियम की धारा 1(4) के अनुसार, इसके बावजूद किसी भी अन्य कानून में निहित कुछ भी उक्त अधिनियम के प्रावधान देखभाल और संरक्षण की आवश्यकता वाले बच्चों से संबंधित सभी मामलों पर लागू होंगे। उक्त गैर-बाधा खंड यह स्पष्ट रूप से स्पष्ट करता है कि प्रतिवादी संख्या 2-सीडब्ल्यूसी ने कानून के जनादेश के अनुसार कार्य किया है।"

    कोर्ट ने कहा था कि किशोर न्याय अधिनियम की धारा 101 में अपील का प्रावधान है जिसे सीडब्ल्यूसी द्वारा पारित आदेश से व्यथित किसी भी व्यक्ति द्वारा दायर किया जा सकता है। याचिकाकर्ता उक्त प्रावधान के तहत आगे बढ़ सकते हैं, यदि उन्हें प्रतिवादी संख्या 2-सीडब्ल्यूसी द्वारा बच्चे को ट्रस्ट में भेजने और कस्टडी के लिए उनके आवेदन को अस्वीकार करने के उक्त आदेश के संबंध में कोई शिकायत थी।

    हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया था कि,

    "चूंकि प्रतिवादी संख्या 2-सीडब्ल्यूसी द्वारा पारित आदेश कानून के अनुसार है और उक्त आदेश के अनुसार बच्ची सीडब्ल्यूसी की कस्टडी है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि वह अनुचित या अवैध कस्टडी में है। इसलिए बंदी प्रत्यक्षीकरण के लिए वर्तमान रिट याचिका विफल होनी चाहिए।"

    याचिकाकर्ताओं की ओर से वकील सैयद मेहदी इमाम, मोहम्मद परवेज डबास और उजमी जमील हुसैन पेश हुए।

    केस का शीर्षक: कृपाल अमरीक सिंह और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य

    आदेश की कॉपी यहां पढ़ें:




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