'राज्य ने आरोपियों की मदद की, निष्पक्ष रूप से मुकदमा चलाने में विफल': सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार को 1995 के दोहरे हत्याकांड में पीड़ितों को मुआवजा देने का निर्देश दिया

Sharafat

9 Sep 2023 11:52 AM GMT

  • राज्य ने आरोपियों की मदद की, निष्पक्ष रूप से मुकदमा चलाने में विफल: सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार को 1995 के दोहरे हत्याकांड में पीड़ितों को मुआवजा देने का निर्देश दिया

    सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते पूर्व सांसद और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) नेता प्रभुनाथ सिंह को 1995 के दोहरे हत्याकांड मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनाई। सजा सुनाते हुए शीर्ष अदालत ने घटना में दोनों मृतकों को 10-10 लाख रुपए और घायलों के लिए 5-5 लाख रुपये बिहार सरकार और दोषी को अलग-अलग देने का निर्देश दिया। अदालत ने सिंह को आईपीसी की धारा 307 के तहत हत्या के प्रयास के अपराध में सात साल कैद की सजा भी सुनाई।

    जस्टिस संजय किशन कौल , जस्टिस अभय एस. ओक और जस्टिस विक्रम नाथ की पीठ ने सजा सुनाते हुए कहा, '' मामले के चौंकाने वाले तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए ऊपर उल्लिखित राशि का जुर्माना लगाया गया है।''

    एक दुर्लभ कदम में न्यायालय ने बिहार सरकार को मृतकों और घायलों के कानूनी उत्तराधिकारियों को मुआवजा देने का निर्देश दिया, क्योंकि अदालत का मानना ​​था कि राज्य मामले को निष्पक्ष रूप से चलाने में विफल रहा और वास्तव में राज्य ने अभियुक्तों की सहायता की थी। मुआवजे का निर्देश आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 357 के अनुसार दिया गया था, जो अपराध के कारण होने वाले किसी भी नुकसान या चोट के लिए मुआवजे के भुगतान की अनुमति देता है।

    शीर्ष अदालत ने आरोपियों को सजा सुनाते हुए निर्देश दिया,

    “राज्य के आचरण और पीड़ित परिवार द्वारा झेले गए आघात और उत्पीड़न की मात्रा को ध्यान में रखते हुए हमारा विचार है कि सीआरपीसी की धारा 357 के तहत दिए गए नुकसान के अलावा अतिरिक्त मुआवजा दिया जाए। सीआरपीसी की धारा 357-ए के तहत मुआवज़ा दिया गया।

    बिहार राज्य दोनों मृतकों के कानूनी उत्तराधिकारियों और घायल के जीवित होने पर अन्यथा उसके कानूनी उत्तराधिकारियों को ऊपर दिए गए जुर्माने की राशि के बराबर यानी मृतक राजेंद्र राय और दरोगा राय के कानूनी उत्तराधिकारियों को 10-10 लाख रुपये मुआवजा देगा। घायल या उसके कानूनी उत्तराधिकारी, जैसा भी मामला हो, उसे पांच-पांच लाख रुपए मुआवज़ा दिया जाए।"

    दो हफ्ते पहले अदालत ने सिंह को 1995 के दोहरे हत्याकांड में दोषी ठहराया था और निचली अदालत द्वारा दिए गए बरी करने के फैसले को पलट दिया था। पटना हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले की पुष्टि की थी। सिंह उस समय बिहार पीपुल्स पार्टी (बीपीपी) के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहा था। सिंह को मतदान नहीं करने पर मार्च 1995 में छपरा में एक मतदान केंद्र के पास दो व्यक्तियों की हत्या करने का आरोप लगाया गया था। जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस अभय एस ओक और जस्टिस विक्रम नाथ की पीठ शुक्रवार को सिंह की सजा के सवाल पर सुनवाई कर रही थी।

    सुप्रीम कोर्ट ने कड़े शब्दों में दिए गए फैसले में मुकदमे को जर्जर और जांच को "दागदार कहा, जो अभियुक्त-प्रतिवादी नंबर 2 की मनमानी को दर्शाता है, जो एक शक्तिशाली व्यक्ति है और सत्तारूढ़ पार्टी का सांसद रहा।" 2008 में पटना की एक अदालत ने सबूतों की कमी का हवाला देते हुए सिंह को बरी कर दिया था। बाद में 2012 में पटना हाईकोर्ट ने बरी किए जाने के फैसले को बरकरार रखा। परिणामस्वरूप, पीड़ितों में से एक के भाई ने बरी किए जाने के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।

    मुकदमे में कई खामियों की ओर इशारा करते हुए शीर्ष अदालत ने मामले को " हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली का एक असाधारण दर्दनाक प्रकरण" कहा।

    शीर्ष अदालत ने कहा कि आपराधिक मुकदमे में तीन मुख्य हितधारक, यानी जांच अधिकारी, बिहार राज्य की पुलिस का हिस्सा, लोक अभियोजक और न्यायपालिका, सभी अपने-अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को निभाने में विफल रहे।

    शीर्ष अदालत ने कहा कि मामले में लोक अभियोजक के आचरण से यह स्पष्ट हो गया कि वह अभियुक्तों के हित में काम कर रहा था, जिसे निचली अदालतें नोटिस करने में विफल रहीं। इस संदर्भ में न्यायालय ने अभियोजक के राज्य, अभियुक्त और अदालत के प्रति कर्तव्य पर जोर दिया और कहा कि वे किसी भी पक्ष के प्रतिनिधि नहीं हैं।

    सीआरपीसी की धारा 357 (1) (ए) में प्रावधान है कि जब भी सजा के रूप में जुर्माना लगाया जाता है तो अदालत इसे पूरी तरह या आंशिक रूप से अभियोजन में किए गए खर्चों को चुकाने के लिए लागू करने का निर्देश दे सकती है। हालांकि, इस मामले में न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि वह खर्च की ऐसी वसूली का निर्देश नहीं दे रहा है, क्योंकि अभियोजन पक्ष ने अभियुक्त की सहायता की थी।

    बेंच ने कहा,

    "हम इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि राज्य ने वास्तव में मामले पर निष्पक्ष रूप से मुकदमा नहीं चलाया बल्कि पूरे मामले में अभियुक्तों की सहायता की, राज्य को इस तरह का कोई भी खर्च देने के इच्छुक नहीं हैं।" शीर्ष अदालत ने सजा सुनाते हुए कहा

    अदालत ने यह भी कहा कि यह देखते हुए कि घटना 1995 में हुई थी और तब से 28 साल पहले ही बीत चुके हैं वह सिंह को मौत की सजा नहीं दे रही है।

    टाइटल : हरेंद्र राय बनाम बिहार राज्य, 2015 की आपराधिक अपील नंबर 1726

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