"अनधिकृत रूप से सुनी गई याचिका क्या नई अदालत में नए सिरे से सुनी जाएगी," सुप्रीम कोर्ट की वृहद पीठ करेगी विचार

LiveLaw News Network

9 Oct 2019 2:13 PM GMT

  • अनधिकृत रूप से सुनी गई याचिका क्या नई अदालत में नए सिरे से सुनी जाएगी, सुप्रीम कोर्ट की वृहद पीठ करेगी विचार

    "यदि नागरिक प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) के नियम 10 के आदेश VII तथा नियम 10(ए) के परिप्रेक्ष्य में कोई अर्जी वापस की जाती है तो क्या नयी अदालत में उसकी सुनवाई शुरू से होगी या उस स्टेज से जहां तक सुनवाई के बाद अर्जी वापस की गयी थी।" सुप्रीम कोर्ट ने इस विषय को विचारार्थ वृहद पीठ के सुपुर्द कर दिया है।

    न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ ने 'मेसर्स ईएक्सएल कैरियर्स बनाम फ्रैंकफिन एवियेशन सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड' मामले के इन कानूनी पहलुओं को वृहद पीठ को विचारार्थ भेज दिया। पीठ ने 'ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन लिमिटेड बनाम मॉडर्न कंस्ट्रक्शन' तथा 'जोगिन्दर तुली बनाम एस. एल. भाटिया' मामलों से संबंधित फैसलों में व्यापक विरोधाभास के मद्देनजर यह निर्णय लिया।

    मॉडर्न कंस्ट्रक्शन (2014)

    इस मामले में न्यायालय ने व्यवस्था दी थी कि सुनवाई के अधिकार क्षेत्र को लेकर वापस की गयी अर्जी जिस सक्षम अदालत के समक्ष दायर की जाती है वहां वह नयी याचिका समझी जायेगी और उसकी सुनवाई नये सिरे से शुरू होगी, भले ही अनधिकृत अदालत ने उसकी सुनवाई पूरी क्यों न कर ली हो। न्यायालय ने तब कहा था,

    "यदि जिस अदालत में सुनवाई शुरू हुई हो और उसे लगा हो कि उसका अधिकार क्षेत्र नहीं तो अर्जी जिस सक्षम अदालत के समक्ष दायर की जाती है वहां वह नयी याचिका समझी जायेगी और उसकी सुनवाई नये सिरे से शुरू होगी, भले ही अनधिकृत अदालत ने उसकी सुनवाई पूरी क्यों न कर ली हो।"

    कोर्ट ने कहा,

    "अगर वह अदालत जहाँ मामला दायर किया गया है वह अगर यह निर्णय करता है कि मामला उसके क्षेत्राधिकार के बाहर है तो आदेश 7 नियम 10 सीपीसी के प्रावधानों को देखते हुए इस मामले को वापस करना होगा और वादी इस मामले को उस अदालत में दायर करेगा जिसके न्यायिक क्षेत्राधिकार में यह आता है। इस तरह की स्थिति में, वादी उस अवधि को हटा सकता है जिस अवधि के दौरान यह मामला उस अदालत में चला जिस अदलात के क्षेत्राधिकार से यह बाहर था और वह अदालत को जो फ़ीस का भुगतान किया है उसको भी एडजस्ट करने का आग्रह कर सकता है। हालाँकि, उचित अदालत में मामले को दुबारा दायर करने के बाद इस शिकायत पर नए सिरे से सुनवाई होगी।"

    जोगिन्दर तुली [ (1997) 1 SCC 502]

    इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस आदेश को सही ठहराया कि मामले की सुनवाई नयी अदालत में हो और इसकी सुनवाई वहाँ से शुरू हो जहाँ से इसे वापस किया गया है। अदालत ने कहा,

    "सामान्यतया, जब मामले को उचित अदालत में भेजने का निर्देश दिया जाता है तो इसकी सुनवाई दुबारा शुरू करनी पड़ती है लेकिन इस मामले में चूँकि पक्षों ने सबूत पहले ही पेश कर दिया है, मामले की इसी के अनुरूप सुनवाई हुई। हाईकोर्ट ने निर्देश दिया था कि मामले की सुनवाई वही से शुरू हो जहाँ से इसे वापस किया गया है। हमें इसमें कुछ भी ग़ैरक़ानूनी नहीं लगता ताकि इसमें हस्तक्षेप ज़रूरी हो।"

    मॉडर्न कंस्ट्रक्शन पर पुनर्विचार की ज़रूरत

    पीठ ने इस मामले में कहा कि मॉडर्न कंस्ट्रक्शन के मामले में दिए गए फ़ैसले पर पुनर्विचार की ज़रूरत है।

    हालाँकि, अदालत ने जोगिन्दर तुली मामले में ग़ौर करते हुए कहा कि जब इस मामले को दायर किया गया था तब यह अदालत के क्षेत्राधिकार में था जबकि वर्तमान मामले में जिस अदालत में यह मामला दायर है उस अदालत के अधिकारक्षेत्र में वह उस समय भी नहीं आता था जब इसे दायर किया गया।

    आदेश VII नियम 10A के तहत प्रावधान है कि किसी मामले में प्रतिवादी के पेश होने के बाद अदालत की राय में अपील को वापस कर दिया जाना चाहिए, वादी एक आवेदन द्वारा यह आग्रह कर सकता है कि वह किस अदालत में अपने मामले को ट्रांसफर चाहता है और पक्षों की पेशी के बारे में तिथि तय करे और इसकी सूचना दोनों पक्षों को दे। इसके बाद अदालत पेशी की तारीख़ तय कर सकता है और नई अदालत को प्रतिवादी को दोबारा पेश होने के लिए कहने की ज़रूरत नहीं होती है अगर इस तरह की कोई नोटिस दिया जा चुका है। जोगिन्दर तुली मामले में अदालत ने निर्देश दिया कि जिन सबूतों को रेकर्ड किया जा चुका है उस पर ग़ौर किया जाना चाहिए जबकि मॉडर्न कंस्ट्रक्शन मामले में अदालत ने अलग राय व्यक्त की थी।

    पीठ ने कहा कि जब तक कोई पक्ष यह शिकायत नहीं करता कि उस अदालत की कुछ कार्रवाइयों से उसके ख़िलाफ़ दुर्भावना पैदा हुआ है जिसके लिए ऐसा निर्णय लेना औसके क्षेत्राधिकार में नहीं आता, तब तक इस मामले की सुनवाई नए सिरे से शुरू करना व्यापक हित में नहीं होगा।

    भारत में अदालत पहले ही मामलों के बोझ से दबा हुआ है। हमें यह बात उचित नहीं लगती कि ऐसे मामले जो उन अदालतों में सुने जा रहे थे जो उनके क्षेत्राधिकार में नहीं था, क्यों नहीं उसको क्षेत्राधिकार वाले अदालतों में ट्रान्स्फ़र किया जाए। सीपीसी की धारा 21 यह कहती है कि क्षेत्राधिकार के मामले को लेकर आपत्ति उठाने की अनुमति नहीं है बशर्ते इस तरह की आपत्ति इसका पहली बार मौक़ा मिलते ही उठाई गई हो और किसी भी सूरत में मामले को फ़्रेम करने से पहले। इसके अलावा यह भी ज़रूरी है कि न्याय में लगातार विफलता पाई गई हो। यह बार-बार कहा गया है कि भौगोलिक क्षेत्राधिकार के बारे में आपत्ति तकनीकी आपत्तियाँ हैं और जब तक इसे बहुत ही शुरू में नहीं उठाई जाती, अपील या समीक्षा के दौरान इस पर पहली बार ग़ौर नहीं किया जा सकता।

    समय की सुई को पीछे क्यों ले जाया जाए?

    पीठ ने इस मामले को बड़ी पीठ को सौंपते हुए कहा,

    "जब अदालत किसी शिकायत को वापस करती है, हम प्रथम दृष्ट्या यह समझते हैं कि अपने निहित अधिकार का प्रयोग करते हुए अदालत को इस शिकायत को वापस कर देना चाहिए जो कि वादी की परिसंपत्ति है पर उसको इसके साथ ही अदालत में मौजूद इससे संबंधित अन्य मटीरीयल को भी ट्रान्स्फ़र कर देना चाहिए जो वादी आदेश VII नियम 10 के अधीन ट्रान्स्फ़र के लिए आवेदन किया है। इससे दुबारा कार्यवाही, साक्ष्य और विरोधाभासों से बचा जा सकता है अगर एक ही कार्यवाही में दलील और साक्ष्यों के दो सेट पेश किए जाएँ। वर्तमान मामले में इस मामले में अगर कोई हो तो, साक्ष्यों और दलीलों के खंडन की स्थिति आ गई थी। दलील और सबूत पेश करने का मामला पूरा हो चुका है। इस स्थिति में घड़ी की सूई को क्यों 6 साल पीछे घुमाया जाए क्योंकि इस स्थिति तक पहुँचने में इस मामले को इतनी अवधि लग गई है? "



    Tags
    Next Story