कार्य प्रभारी के रूप में दी गई सेवाओं को भी पेंशन के लिए योग्य सेवा माना जाए , सुप्रीम कोर्ट का फैसला
LiveLaw News Network
16 Sept 2019 6:08 PM IST
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि कार्य प्रभारी के रूप में संस्थान में दी जाने वाली सेवाओं को पेंशन देने के लिए योग्य सेवा माना जाना चाहिए। जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस अब्दुल नजीर और जस्टिस एम.आर शाह की पीठ ने इस मामले में दिए अपने फैसले में उन कर्मचारियों की अपील को स्वीकार किया जिन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ अपील दायर की थी।
यूपी सेवानिवृत्ति लाभ नियम 1961 की धारा 3(8) के अनुसार 'कार्य प्रभारी' के रूप मेंं संस्थान में दी गई सेवाओं की अवधि को पेंशन के लिए योग्य सेवा नहीं माना गया था ।
ऐसा ही एक समविषयक प्रावधान पंजाब सिविल सेवा नियमों के नियम 3.17(दो) में निहित था जिसे "केसर चंद बनाम पंजाब राज्य'' के मामले में पंजाब एंड हरियाणा हाईकोर्ट की फुल बेंच द्वारा खत्म कर दिया गया था। उस फैसले के बाद, वर्ष 2017 में सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय खंडपीठ ने भी अपने एक फैसले में साफ कर दिया था कि उत्तराखंड सरकार के तहत कार्य-प्रभार के रूप में दी गई सेवाओं की अवधि को भी पेंशन के लिए योग्य सेवा माना जाएगा।
यूपी सरकार की तरफ से पेश महाधिवक्ता रघुवेंद्रा सिंह ने दलील दी कि नियमित कर्मचारी और कार्य-प्रभारी कर्मचारी की संकल्पना में अंतर होता है। कार्य-प्रभारी कर्मचारी को उस प्रक्रिया के तहत नियुक्त नहीं किया जाता है,जो प्रक्रिया नियमित कर्मचारियों की नियुक्ति में अपनाई जाती है। काम के बोझ व कार्य के प्रति जवाबदेही में भी अंतर होता है।
महाधिवक्ता ने यह भी दलील दी कि कार्य-प्रभारी सेवा को कैरियर प्रगति आश्वासन(एसीपी) के लिए भी नियमित सेवा नहीं माना जा सकता है। सरकार के पास विभिन्न वर्गों के कर्मचारियों के लिए अलग-अलग नियम बनाने का अधिकार है। ऐसे में नियम और विनियमन 370 के नियम 3(8) को मनमाना और भेदभावपूर्ण नहीं कहा जा सकता है।
सिविल सेवा नियम के विनियमन 370 में निहत प्रावधान के तहत गैर-पेंशन योग्य संस्थान,कार्य-प्रभारी संस्थान और आकस्मिक खर्चो से भुगतान किए जाने वाले पद पर दी गई सेवाओं को योग्य सेवा के दायरे से बाहर रखा गया है। सिविल सेवा नियम के विनियमन 361 के तहत सेवाएं सरकार के अंतर्गत दी गई होनी चाहिए और कर्मचारी स्थाई तौर पर नियुक्त किया गया होना चाहिए|
सुप्रीम कोर्ट ने मामले के तथ्यों पर विचार करने के बाद पाया कि कार्य-प्रभारी कर्मचारी भी उन्हीं शर्तों के अधीन होते हैं,जो नियमित कर्मचारियों पर लागू होती हैं। कोर्ट ने कहा कि-
"कार्य-प्रभारी कर्मचारियों की नियुक्ति मासिक वेतन पर की गयी थी और उनको भी दक्षता के लिए निर्धारित नियमों को पूरा करने की आवश्यकता थी। ऐसे में गुणवत्ता के तौर पर कैसे उनकी सेवाएं नियमित कर्मचारियों की सेवाओं से अलग हैं? कोई ऐसा तथ्य पेश नहीं किया गया, जिसके आधार पर इनकी सेवाओं को गुणवत्ता के आधार पर अलग-अलग माना जा सके,बस इसके लिए मामूली बयान दिए गए हैं।
इनकी नियुक्ति किसी विशेष परियोजना के लिए नहीं की गई थी, जो कि कार्य-प्रभारी कर्मचारियों की मूल अवधारणा है। इसके बजाय कार्य-प्रभारी रोजगार की अवधारणा का दुरूपयोग किया गया है क्योंकि रोजगार को शोषण करने वाली शर्तों पर दिया गया,जो कि नियमित प्रकृति का काम था। पीठ ने कहा कि मामले में पेश कागजातों से स्पष्ट है कि कार्य-प्रभारी कर्मचारियों का तबादला भी नियमित कर्मचारियों की तरह एक स्थान से दूसरे स्थान पर किया जा सकता है।''
"राज्य सरकार व उसके अधिकारियों द्वारा कर्मचारियों से कार्य-प्रभारी के आधार पर काम लेना अनुचित था। उन्हें नियमित आधार पर नियुक्ति करनी चाहिए थी। परंतु लंबे समय तक कार्य-प्रभारी के तौर पर काम लेने को शोषक उपकरण अपनाने के समान माना जाएगा। बाद में उनकी सेवाओं को नियमित कर दिया गया था।
हालांकि उन सभी कर्मचारियों के द्वारा कार्य-प्रभारी के तौर किए गए काम को योग्य सेवाओं में नहीं माना गया। इस प्रकार,कार्य-प्रभारी संस्थान में कम वेतन पर अपनी सेवाएं देने के बाद भी वे न केवल अपने नियत परित्यागों से वंचित रह गए हैं,बल्कि पेंशन के लाभ के लिए भी उनके इस काम की अवधि की गणना नहीं की जा रही है,जैसे उन्होंने कोई सेवा प्रदान ही न की हो। जबकि कार्य-प्रभारी संस्थान में उनके द्वारा कम वेतन पर दी गई सेवाओं से राज्य सरकार को लाभ हुआ है।''
जस्टिस अरुण मिश्रा द्वारा लिखवाए गए फैसले में यह भी कहा गया है कि-
"नियमितीकरण से पहले कार्य-प्रभारी के तौर पर दी गई सेवाओं की गणना न करने के लिए कोई तुक या कारण नहीं है। हमारी राय में,नियम 3(8) के तहत अस्वीकार्य वर्गीकरण बनाया गया है।
ऐसे कर्मचारियों को अर्हकारी या योग्य सेवा से वंचित करना बहुत ही अन्यायपूर्ण,अस्वीकार्य और तर्कहीन होगा। कार्य-प्रभारी के दौरान दी गई सेवाएं सभी कर्मचारियों के लिए समान रहती हैं। एक बार जब इसे एक वर्ग के लिए गिना जाता है तो भेदभाव को रोकने के लिए इसकी गिनती सभी के लिए करनी होती है। वर्गीकरण को तर्कहीन आधार पर नहीं किया जा सकता है।
जब एक बार प्रतिवादी स्वयं इस तरह की सेवा में बिताए गए समय की अवधि की गणना कर रहे हैं तो यह बहुत ही भेदभावपूर्ण होगा कि कमजोर या सूक्ष्म वर्गीकरण के आधार पर इसे सेवाओं में न गिना जाए।''
कोर्ट ने कहा कि-
'' यूपी सेवानिवृत्ति लाभ नियम 1961 की धारा 3(8) को पढ़ने के बाद हमारा मानना है कि कार्य-प्रभारी संस्थान में दी गई सेवाओं को इस नियम के तहत पेंशन देने के लिए योग्य सेवाएं माना जाए। पेंशन की बकाया राशि इस आदेश की तारीख से तीन साल पहले तक ही सीमित रहेगी। स्वाकीर्य लाभों का तीन महीने के अंदर भुगतान कर दिया जाए।''