सीआरपीसी की धारा 482 : हाईकोर्ट के फैसले को बदलने के लिए अंतर्निहित अधिकार का प्रयोग नहीं किया जा सकता : सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

5 Nov 2019 5:16 AM GMT

  • सीआरपीसी की धारा 482 : हाईकोर्ट के फैसले को बदलने के लिए अंतर्निहित अधिकार का प्रयोग नहीं किया जा सकता : सुप्रीम कोर्ट

    हाईकोर्ट सीआरपीसी की धारा 482 का प्रयोग करते हुए साक्ष्यों के आधार पर निर्णीत मामलों में फैसले को बदल नहीं सकता या उसे दोबारा खोल नहीं सकता। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में यह कहा।

    न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और अनिरुद्ध बोस की पीठ ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट के पास अपने फैसले को बदलने का अधिकार नहीं है।

    क्या है मामला

    निचली अदालत ने आईपीसी की धारा 468, 471 और 419 के तहत एक आरोपी को दोषी पाया। निचली अदालत का निष्कर्ष था कि आरोपी ने फर्जी दस्तावेज के आधार पर नौकरी हासिल की थी और इस तरह एक ऐसे उम्मीदवार को यह नौकरी पाने से रोक दिया जिसे योग्यता के आधार पर यह मिल सकती थी।

    कोर्ट ने कहा कि इस आधार पर प्रोबेशन के लिए यह उचित मामला नहीं है। निचली अदालत ने आरोपी को एक साल के सश्रम कारावास और 2000 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई। सत्र अदालत ने उसकी अपील खारिज कर दी, जबकि हाईकोर्ट ने उसकी समीक्षा अपील को स्वीकार कर लिया पर उसकी सजा को जायज ठहराया लेकिन कारावास की सजा को कम कर जितना दिन वह जेल में रहा घटाकर उतने ही दिन कर दी जबकि जुर्माने को बढ़ाकर 10 हजार रुपये कर दिया।

    इसके बाद सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर सिंह की याचिका पर हाईकोर्ट ने उसे उस सजा के लिए प्रोबेशन ऑफ़ ओफेंडर्स अधिनियम का लाभ दिया, यह सजा वह पहले ही पूरी कर चुका था और इस तरह याचिकाकर्ता की सेवा अवधि पर इसका कोई असर नहीं पड़ता।

    सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

    मध्य प्रदेश राज्य बनाम मान सिंह के इस मामले में सुप्रीम कोर्ट को यह निर्णय करना था कि क्या हाईकोर्ट के जज सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अपने अधिकारों का प्रयोग कर हाईकोर्ट के ही फैसले को बदल सकते हैं या नहीं।

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा,

    "अदालत को सीआरपीसी के तहत मामलों की समीक्षा का अधिकार नहीं है। जब हाईकोर्ट निचली अदालत पर सजा को संशोधित कर दिया था तो फिर उसे सीआरपीसी की धारा 482 के तहत इस याचिका को स्वीकार नहीं करना चाहिए था और सजा को नहीं बदलना चाहिए था।"

    अदालत ने स्पष्ट कहा,

    "हाईकोर्ट के पास अपने ही आदेश को धारा 362 या 482 के तहत बदलने का अधिकार नहीं है। अदालत ने कहा कि किसी फैसले को दोबारा तलब करने का मतलब है फैसले को बदलना या उसकी समीक्षा करना जिसकी सीआरपीसी की धारा 362 के तहत इजाजत नहीं है और हाईकोर्ट अपने अंतर्निहित अधिकार का प्रयोग करते हुए इसे सही नहीं ठहरा सकता।"

    पीठ ने यह भी कहा कि प्रोबेशन पर कोई आदेश देने से पहले अदालत को चाहिए था कि वह संबंधित प्रोबेशनरी अधिकारी के बारे में रिपोर्ट तलब करता। इस मामले में हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि आरोपी जो सजा झेल चुका है उसका उसके सर्विस करियर पर असर नहीं पड़ेगा।

    पीठ ने कहा,

    "हम यह समझने में असफल रहे हैं कि हाईकोर्ट ने अपने किस अधिकार के तहत यह आदेश दिया है। उस मामले में भी जब हाईकोर्ट आरोपी को प्रोबेशन का लाभ देता है, अदालत को यह आदेश देने का अधिकार नहीं है कि कर्मचारी को सेवा में बनाए रखा जाए। स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया एवं अन्य बनाम पी सौप्रमानियाने के मामले में इस अदालत ने स्पश कहा था कि इस अधिनियम के तहत प्रोबेशन का लाभ देने का इस तरह के कमर्चारी के सेवा पर कोई असर नहीं होगा। इस अदालत का मत था कि इस आधार पर कि उसे प्रोबेशन पर रिहा कर दिया गया इस आधार पर वह सेवा में बने रहने का अधिकार हासिल करने का दावा नहीं कर सकता। "

    आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें।



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