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[आईपीसी की धारा 304बी] पीड़िता की मौत से पहले दहेज और उत्पीड़न की शिकायत की एफआईआर दर्ज कराने में विफलता की दलील अर्थहीन: सुप्रीम कोर्ट
![[आईपीसी की धारा 304बी] पीड़िता की मौत से पहले दहेज और उत्पीड़न की शिकायत की एफआईआर दर्ज कराने में विफलता की दलील अर्थहीन: सुप्रीम कोर्ट [आईपीसी की धारा 304बी] पीड़िता की मौत से पहले दहेज और उत्पीड़न की शिकायत की एफआईआर दर्ज कराने में विफलता की दलील अर्थहीन: सुप्रीम कोर्ट](https://hindi.livelaw.in/h-upload/2019/04/28360268-supreme-court-of-india-2jpg.jpg)
सुप्रीम कोर्ट ने दहेज हत्या मामले के दोषी को ज़मानत मंजूर करने के इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को दरकिनार करते हुए कहा कि पीड़िता की मौत से पहले दहेज और उत्पीड़न की शिकायत संबंधी प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज कराने में विफल रहने की दलील के कोई मायने नहीं हैं।
इस मामले में ट्रायल कोर्ट ने संदीप सिंह होरा को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धाराएं 304(बी), 498(ए) और 406 तथा दहेज निरोधक अधिनियम, 1961 की धाराएं- तीन और चार के तहत अपराध का दोषी पाया था। उसके खिलाफ इसलिए इन धाराओं के तहत मुकदमा चलाया गया था, क्योंकि शादी के साढ़े आठ महीने बाद ही उसकी पत्नी की मौत हो गयी थी। यह मौत ऐसी परिस्थितियों में हुई थी, जो प्राकृतिक तो कतई नहीं थी।
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ट्रायल कोर्ट के फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील के दौरान आरोपी ने दलील दी थी कि
(एक) पीड़िता की मौत से पहले दहेज मांगने या उत्पीड़न की कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गयी थी।
(दो) उसने पीड़िता के भाई से ढाई लाख रुपये कर्ज के तौर पर लिये थे, न कि दहेज के तौर पर।
(तीन) पीड़िता ने आत्महत्या की थी जो पोस्ट- मार्टम रिपोर्ट से भी साबित होती है। इन दलीलों का संज्ञान लेकर हाईकोर्ट ने एक छोटा, रहस्यमय और संवादरहित आदेश सुनाते हुए सजा के अमल पर रोक लगा दी थी और दोषी को ज़मानत दे दी थी।
न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की खंडपीठ ने मृतका के पिता की ओर से दायर अपील को स्वीकार करते हुए कहा,
"अभियोजन पक्ष के गवाहों के बयान से यह पता चलता है कि अपीलकर्ता (मृतका के पिता) ने अपनी बेटी की शादी में आर्थिक क्षमता से अधिक खर्च किया था और यहां तक कि उसने एक आई-10 कार भी तोहफे में दी थी। मजबूर माता-पिता इस उम्मीद में थे कि कोई न कोई सौहार्दपूर्ण निदान निकल जायेगा। यहां तक कि 17 जून 2010 को पीड़िता के भाई ने प्रतिवादी संख्या- दो को ढाई लाख रुपये का भुगतान भी किया था।
पीड़िता की मौत से पहले दहेज और उत्पीड़न की शिकायत संबंधी प्राथमिकी न दर्ज कराने की दलील हमारे विचार से महत्वहीन है। मृतका के ज़िंदा रहने के दौरान उसके माता-पिता और परिजन निश्चित तौर पर प्रतिवादी संख्या- दो और उसके माता-पिता के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराकर शादी को पूरी तरह खत्म करने की जल्दबाजी नहीं चाह रहे होंगे।"
कोर्ट ने यह भी कहा कि सजा के निलंबन की अर्जी पर विचार करते वक्त अपीलीय अदालत केवल यह जांच करती है कि क्या दोषसिद्धि के आदेश में कोई ऐसी स्पष्ट विसंगति नजर आयी है, जिससे दोषसिद्धि का आदेश प्रथम दृष्टया त्रुटिपूर्ण लगे।
बेंच ने कहा,
"जहां पर साक्ष्य मौजूद हो, जिस पर ट्रायल कोर्ट ने विचार किया हो, तो अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 389 के तहत उसी साक्ष्य का पुनर्मूल्यांकन और/ अथवा पुनर्विश्लेषण करना और सजा पर अमल पर रोक लगाने के लिए एक दृष्टिकोण अपनाना तथा दोषी को ज़मानत पर रिहा करना अपीलीय अदालत का काम नहीं है।
सज़ा को निलंबित करके जमानत मंजूर किये जाने के लिए विवश कर देने वाले मजबूत कारण होने चाहिए तथा जैसा कि सीआरपीसी की धारा 389(एक) में अनिवार्य किया गया है उसके अनुरूप ज़मानत मंजूर करने के आदेश के लिए मजबूर करने वाले कारण भी दर्ज किये जाने चाहिए।"
चूंकि सीआरपीसी की धारा 389(एक) के तहत विवेक का इस्तेमाल न्यायिक तौर पर सुसंगत तरीके से किया जाता है, इसलिए अपीलीय अदालत (हाईकोर्ट) इस बात पर विचार करने के लिए बाध्य है कि क्या उसे कोई अकाट्य आधार दिखा है, जिससे दोषसिद्धि की वैधता पर व्यापक संदेह पैदा हुए हों और क्या अपील के निपटारे में अतार्किक विलंब होने की संभावना है?
बेंच ने अपील मंजूर करते हुए कहा कि धारा 304बी को शामिल करने का विधायिका का उद्देश्य दहेज के कारण होने वाली मौत की घटना पर अंकुश लगाना था और इसलिए धारा 304बी के तहत ऐसे मामलों से निपटते वक्त विधायिका के उद्देश्य को भी दिमाग में रखा जाना चाहिए।
बेंच ने कहा,
"जब मौत से पहले पीड़िता के खिलाफ अत्याचार अथवा उत्पीड़न की घटना होने का साक्ष्य मौजूद होता है तो वहां दहेज के कारण मौत होने का अनुमान लगाया जाता है और ऐसे में इसे गलत ठहराने का दायित्व आरोपी ससुरालियों पर होता है। हम यहां दोहराना चाहेंगे कि इस मामले में शादी के साढ़े आठ महीने के भीतर पीड़िता की मौत हो गयी। पीड़िता के उत्पीड़न के स्पष्ट साक्ष्य मौजूद हैं, यहां तक कि उसकी मौत के दिन भी उसे उत्पीड़ित किया गया था। इतना ही नहीं, पीड़िता की मौत से दो माह पहले उसके भाई द्वारा प्रतिवादी- अभियुक्त को ढाई लाख रुपये का भुगतान किये जाने का साक्ष्य भी मौजूद हैं।''
हाईकोर्ट के आदेश को दरकिनार करते हुए बेंच ने अभियुक्त को आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया।
केस का ब्योरा
केस का नाम : प्रीत पाल सिंह बनाम उत्तर प्रदेश सरकार
केस नं. : क्रिमिनल अपील नं. 520/2020
कोरम : न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी
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