भूमि अधिग्रहण मामले में जस्टिस अरुण मिश्रा ने सुनवाई से खुद को अलग करने की मांग ठुकराई
LiveLaw News Network
23 Oct 2019 10:54 AM IST
भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा एवं पारदर्शिता का अधिकार, सुधार तथा पुनर्वास अधिनियम, 2013 की धारा 24(2) की व्याख्या संबंधित मामलों की सुनवाई के लिए संविधान पीठ की अगुवाई कर रहे जस्टिस अरुण मिश्रा सुनवाई करते रहेंगे। पांच जजों के संविधान पीठ में बुधवार को फैसला सुनाते हुए जस्टिस मिश्रा ने कहा कि वो सुनवाई से अलग नहीं होंगे। मामले से जुडे़ कुछ याचिकाकर्ताओं ने जस्टिस मिश्रा से सुनवाई में शामिल ना होने की मांग की थी।
दरअसल सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 16 अक्टूबर को न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा को भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा एवं पारदर्शिता का अधिकार, सुधार तथा पुनर्वास अधिनियम, 2013 की धारा 24(2) की व्याख्या संबंधित मामलों की सुनवाई में जस्टिस अरुण मिश्रा को अलग करने के लिए याचिका पर आदेश सुरक्षित रखा था।
वरिष्ठ वकील श्याम दीवान, गोपाल शंकरनारायणन, राकेश द्विवेदी द्वारा दो दिनों के लंबे तर्क के बाद अदालत ने यह आदेश दिया। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने एएसजी पिंकी आनंद और वरिष्ठ वकील मोहन परासरन और विवेक तन्खा के साथ याचिका का विरोध किया था।
याचिकाकर्ताओं ने दी थी ये दलील
याचिकाकर्ताओं की दलीलों को आगे बढ़ाते हुए दीवान ने कहा था कि एक विशेष दृष्टिकोण रखने के लिए एक न्यायाधीश के पक्षपात ने पूर्वाग्रह की उचित आशंका को जन्म दिया, जो पुनरावृत्ति के लिए पर्याप्त है। अयोग्यता पर वास्तविक पूर्वाग्रह के आधार पर तर्क नहीं किया जाता है, यह पूर्वाग्रह की उचित आशंका पर किया जाता है।
न्यायमूर्ति मिश्रा ने इसे खारिज करने से इनकार कर दिया था और कहा किया कि यह अनुरोध से पीठ के खिलाफ साज़िश है। न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा, "आप अपनी पसंद की बेंच चाहते हैं, आपके फॉर्मूले से जो आपका पक्ष ले सकें। यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को नष्ट कर देगा। यह बेंच का शिकार करने से कुछ कम नहीं है। यह न्यायपालिका पर नियंत्रण करना है।"
सॉलिसिटर जनरल ने कहा था कि पूर्वाग्रहित पूर्वाग्रह को पुनरावृत्ति का कोई मामला बनाने के लिए प्रदर्शित किया जाना चाहिए। किसी मामले के संभावित परिणाम की मात्र सशक्त अभिव्यक्ति अपर्याप्त है। "अतिरिक्त न्यायिक पूर्वाग्रह" के अमेरिकी सिद्धांत का हवाला देते हुए सॉलिसिटर जनरल ने कहा था कि इस तथ्य को कि न्यायिक कार्यवाही के संदर्भ के बाहर के स्रोतों से एक न्यायाधीश पर राय ली गई है, यह पूर्वाग्रह के रूप में पर्याप्त नहीं है।
अलग-अलग बेंचों में न्यायिक मतभेद
दरअसल भूमि अधिग्रहण मामले में उचित मुआवजा और पारदर्शिता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग बेंचों में न्यायिक मतभेद को लेकर चीफ जस्टिस रंजन गोगोई पांच जजों की संविधान पीठ के गठन पर विचार करने को सहमत हो गए थे।
6 मार्च 2018 को तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगवाई वाली संविधान पीठ ने इस मुद्दे पर कोई आदेश जारी करने से इंकार किया था। लेकिन कहा," हमें ये उम्मीद है कि उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट की पीठ इस मुद्दे पर कोई फैसला नहीं देंगी जब तक संविधान पीठ इस पर अपना फैसला ना सुनाए।"
संविधान पीठ ने कहा था कि वो तय करेंगे कि मुआवजा को लेकर 2014 का फैसला सही है या 2018 का। मुआवजे को लेकर क्या प्रक्रिया होनी चाहिए?
दरअसल 22 फरवरी 2018 को एक नए कदम के तहत न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा जो 3 न्यायाधीश की बेंच के अध्यक्ष थे, जिन्होंने 'पुणे नगर निगम मामले' में फैसला दिया था और न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर की अध्यक्षता वाली दूसरी पीठ ने उस आदेश का संज्ञान लिया था, ने इस मुद्दे को तय करने के लिए एक बड़ी पीठ का गठन करने के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश को भेजा था कि वह न्यायिक अनुशासनहीनता है या नहीं, इसका फैसला किसी बड़ी बेंच द्वारा हो।न्यायमूर्ति मिश्रा ने CJI को अनुरोध करते हुए एक और बेंच का गठन करने के लिए कहा था कि भूमि अधिग्रहण मामले पर फैसले को लागू किया जाना चाहिए या नहीं।
इंदौर विकास प्राधिकरण के फैसले में शामिल न्यायमूर्ति ए के गोयल की अध्यक्षता वाली एक अन्य पीठ ने भी CJI को यह कहा था कि 'मुद्दों को जल्द से जल्द बडी पीठ द्वारा हल करने की जरूरत है।'
इससे पहले एक आश्चर्यजनक आदेश में न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों की बेंच ने सुप्रीम कोर्ट की अन्य बेंच और उच्च न्यायालयों से अनुरोध किया कि वे भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्वसन अधिनियम, 2013 की धारा 24 से जुडे उचित मुआवजा और पारदर्शिता और संबंधित मामलों में कोई सुनवाई या फैसला ना दें।
इस आदेश से तीन न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता भी शामिल थे, ने न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली एक अन्य 3 न्यायाधीशों की पीठ द्वारा इंदौर विकास प्राधिकरण बनाम शैलेंद्र (मृत) व अन्य मामले में 2: 1 बहुमत से सुनाए गए फैसले पर रोक लगा दी थी।
पीठ ने यह निर्णय दिया था कि पुणे नगर निगम और अन्य बनाम हरकचंद मिश्रिमल सोलंकी मामले में तीन न्यायाधीशों की पीठ का फैसला सही नहीं था। इसमें गया है कि पुराने और नए भूमि अधिग्रहण अधिनियमों के प्रावधानों के तहत राशि जमा न कराना अधिग्रहण की कोई चूक नहीं है। न्यायमूर्ति लोकुर की अध्यक्षता वाली पीठ हरियाणा राज्य द्वारा दायर 29 जून 2016 के फैसले और आदेश को चुनौती देने वाली याचिका की सुनवाई कर रहा था, जो पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा मैसर्स जी.डी. गोयंका पर्यटन निगम लिमिटेड और अन्य बनाम हरियाणा राज्य और अन्य मामले में पारित किया गया था।