सुप्रीम कोर्ट ने ग्राम न्यायालयों की स्थापना को लेकर केंद्र और राज्यों को नोटिस जारी किया
LiveLaw News Network
3 Sept 2019 2:32 PM IST
सुप्रीम कोर्ट ने उस जनहित याचिका पर केंद्र और राज्यों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है जिसमें ग्राम न्यायलय अधिनियम, 2008 (अधिनियम) के उचित कार्यान्वयन की मांग की गई है। इस मामले को जस्टिस एन वी रमना और जस्टिस अजय रस्तोगी की पीठ के समक्ष सोमवार को सूचीबद्ध किया गया था।
दरअसल 1986 में भारत के विधि आयोग की 114 वीं रिपोर्ट द्वारा इस कानून की आवश्यकता पर जोर दिया गया था ताकि सभी की न्याय तक पहुंच सुनिश्चित हो सके और मामलों का त्वरित निपटान हो सके।
नेशनल फेडरेशन ऑफ सोसाइटीज फॉर फास्ट जस्टिस की ओर से वकील प्रशांत भूषण ने दलील दी कि ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 को संविधान के अनुच्छेद 39-ए के अनुरूप 'जमीनी स्तर' पर ग्राम न्यायालय बनाने के लिए पारित किया गया था ताकि गरीब ग्रामीणों को वर्तमान न्यायिक व्यवस्था से छुटकारा मिले। इसे आज तक ठीक से लागू नहीं किया गया है।
याचिकाकर्ताओं ने निम्नलिखित आधारों पर अपनी दलील दी है:
1. राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, केवल 11 राज्यों ने ग्राम न्यायालय को अधिसूचित करने के लिए कदम उठाए थे। इसके अलावा, देश के लगभग 50,000 ब्लॉकों में, 2009 और 2018 के बीच इन 11 राज्य सरकारों द्वारा केवल 320 ग्राम न्यायलय अधिसूचित किए गए और उनमें से केवल 204 शुरू किए गए।
2. अधिनियम को लागू ना करना सभी के लिए, भले ही वो सामाजिक, आर्थिक या अन्य तरह से अक्षम हों, न्याय हासिल करने के उद्देश्य के विपरीत है|
3. ये कदम अनीता कुशवाहा बनाम पुष्प सदन, (2016) 8 SCC 509 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तय भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 के तहत ग्रामीण नागरिकों को 'न्याय तक पहुंच' के मौलिक अधिकार का सरासर उल्लंघन है।
4. आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं से संबंधित मुकदमे, मनरेगा के तहत मजदूरी का भुगतान आदि, ग्रामीण नागरिकों के लिए विशिष्ट हैं और अधिनियम की धारा 3 और 9 के तहत ग्राम न्यायालय और मोबाइल कोर्ट स्थापित करने में विफलता, ऐसे नागरिकों को न्याय तक पहुंच से वंचित करती है।
5. दिलीप कुमार बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, 2015 8 SCC 744 में, शीर्ष अदालत ने सभी के लिए न्याय तक पहुंच को ध्यान में रखते हुए, 'हो सकता है' शब्द को वैकल्पिक मानने से इनकार कर दिया और सभी राज्यों को अनिवार्य रूप से मानवाधिकार आयोग की स्थापना करने का निर्देश दिया। इसलिए, अधिनियम की धारा 3 में कहा गया है कि राज्य सरकार ग्राम न्यायालय का गठन कर ' सकती' हैं, जिसकी व्याख्या भी बड़े पैमाने पर नागरिकों के अनुच्छेद 14 और 21 के उल्लंघन के तौर पर की जानी चाहिए।
6. ग्राम न्यायालय अधिनियम राज्य पर एक वैधानिक कर्तव्य कायम करता है जो 'न्याय तक पहुंच' प्रदान करता है और सर्वोच्च न्यायालय ने मनसुखलाल विट्ठलदास चौहान बनाम गुजरात राज्य (1997) 7 SCC 622 में कहा था कि सार्वजनिक कर्तव्यों का प्रदर्शन, जो प्रकृति में प्रशासनिक, कार्मिक या वैधानिक हो सकता है, को " विवश करने के लिए" निर्देश जारी किया जा सकता है।
7. शुरू होने वाले ग्राम न्यायालय की संख्या में कमी और कमजोर बुनियादी ढांचे के बावजूद, ग्रामीण आबादी काफी हद तक 'न्याय तक पहुंच' से संतुष्ट है और जमीनी स्तर पर इन प्रतिष्ठानों के लिए मजबूत समर्थन रहा है।
याचिकाकर्ताओं ने केंद्र सरकार के लिए दिशा- निर्देश भी मांगे हैं कि इन प्रतिष्ठानों के लिए तय केंद्रीय सहायता से ज्यादा वित्तीय सहायता प्रदान करने के सुप्रीम कोर्ट आदेश जारी करे।