सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और अल्पसंख्यकों के लिए योजनाओं को चुनौती देने वाली PIL पर नोटिस जारी किया 

LiveLaw News Network

21 Jan 2020 2:42 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और अल्पसंख्यकों के लिए योजनाओं को चुनौती देने वाली PIL पर नोटिस जारी किया 

    सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1972 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर नोटिस जारी किया है।

    याचिका में एक घोषणा की मांग की गई है कि ये अधिनियम भेदभावपूर्ण और उल्लंघनकारी होने के रूप में असंवैधानिक है। इसके अलावा, याचिका में अल्पसंख्यकों को दिए जाने वाले विभिन्न वित्तीय लाभों और शैक्षिक अनुदानों को भी चुनौती दी गई है।

    याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि

    संविधान के अनुच्छेद 15 (4) के तहत अल्पसंख्यकों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के रूप में अधिसूचित किए बिना, केंद्र सरकार या संसद के पास कोई भी योजना शुरू करने और उन्हें वित्तीय मदद प्रदान करने की शक्ति या अधिकार क्षेत्र नहीं है।

    वहीं जस्टिस आर एफ नरीमन और जस्टिस एस रवींद्र भट की पीठ के समक्ष अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने कहा कि मामले को संविधान पीठ द्वारा विचार करने की आवश्यकता हो सकती है क्योंकि याचिका में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए संवैधानिक योजना पर सवाल उठाए गए हैं।

    इस मामले पर चार सप्ताह के बाद तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा यह जांचने के लिए विचार किया जाएगा कि क्या इस मामले को बड़ी पीठ के पास भेजा जाना चाहिए।

    नीरज शंकर सक्सेना और पांच अन्य लोगों द्वारा दायर याचिका के अनुसार, जिन्हें "सनातन वैदिक धर्म" का अनुयायी कहा गया है, अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना " संविधान के साथ धोखाधड़ी" है जो केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय एकीकरण की कीमत पर समाज के एक वर्ग के "तुष्टिकरण" के लिए प्रतिबद्ध है।"

    याचिकाकर्ताओं का आरोप है कि केंद्र सरकार मुसलमानों को कानून से ऊपर मान रही है और हिंदू धार्मिक प्रतिष्ठानों की उपेक्षा कर वक्फ संपत्तियों को अनुचित लाभ दिया जा रहा है।

    "केंद्र सरकार मुस्लिम समुदाय को कानून से ऊपर मान रही है और संविधान और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14,15 और 27 में निहित प्रावधानों की अनदेखी करते हुए उन्हें अनुचित लाभ दिया जा रहा है। संविधान की प्रस्तावना और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14,15 और 27 में संवैधानिक निषेधाज्ञा में निहित समानता खंड का उल्लंघन करने वाले इस अधिनियम के चलते हिंदू ट्रस्ट, मठ व अन्य संस्थानों को निचले पायदान पर रखा जा रहा है।" वकील विष्णु शंकर जैन ने याचिका दायर की है और कहा है।

    "याचिकाकर्ता और हिंदू समुदाय के अन्य सदस्य पीड़ित हैं क्योंकि वे बहुसंख्यक समुदाय में पैदा हुए हैं, " याचिका में कहा गया है।

    याचिकाकर्ताओं द्वारा यह भी तर्क दिया गया है कि अल्पसंख्यकों के लाभ के लिए सरकार की विशेष योजनाएं संविधान का उल्लंघन है। याचिका में अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों के लिए मौलाना आजाद नेशनल फैलोशिप जैसी योजनाओं को चुनौती दी गई है।

    "यह विचित्र है कि संसद ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14,15 और 27 में संवैधानिक निषेधाज्ञा का उल्लंघन करते हुए ऐसी योजनाओं को मंजूरी दे दी है, जो हिंदू समुदाय के समान रूप से मौजूद छात्रों के हितों की कीमत पर हैं। समान रूप से हिंदू समुदाय के छात्रों से केवल उनके धर्म के आधार पर भेदभाव किया जा रहा है और दूसरी ओर अधिसूचित अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्यों को उनके धर्म के आधार पर लाभान्वित किया जा रहा है, " याचिका में कहा गया है

    यह माना गया है कि करदाताओं के पैसे का उपयोग अल्पसंख्यक समुदायों के रूप में नामित धार्मिक समूहों के लाभ के लिए किया जा रहा है। हिंदू समुदाय के गरीब लोग विशेष लाभ से वंचित हैं और यह धर्म के धरातल पर केवल एक भेदभाव है, जो याचिका के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन करता है।

    हिंदू समुदाय के समान रूप से व्यक्तियों के हितों से भेदभाव और पक्षपात करना "भारत के संविधान और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर एक गंभीर झटका" है।

    याचिकाकर्ता ने यह भी कहा है कि "अल्पसंख्यक समुदायों को विशेष उपचार देने वाली सरकार की कार्रवाई से बहुसंख्यक हिंदू समुदाय में अशांति और असंतोष बढ़ेगा।"

    याचिका में कहा गया है कि अल्पसंख्यक समुदाय को विशेष लाभ प्रदान करने के लिए कई व्यक्तियों को दूसरे धर्म को अपनाने के लिए बाध्य किया जा सकता है और जनसांख्यिकीय परिवर्तन हो सकते हैं जो भारत की संप्रभुता और अखंडता को प्रभावित करने के लिए बाध्यकारी हैं।

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