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सुप्रीम कोर्ट ने बताया, नौकरी से निकाले गए कामगार के विषय में श्रम अदालत की जांच की क्या है सीमा

LiveLaw News Network
23 Oct 2019 3:30 AM GMT
सुप्रीम कोर्ट ने बताया, नौकरी से निकाले गए कामगार के विषय में श्रम अदालत की जांच की क्या है सीमा
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सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि श्रम अदालत या ट्रिब्यूनल औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 33(2)(b)के तहत किसी मामले की जांच के दौरान इस अधिनियम की धारा 10(i)(c) और (d) के तहत निर्णय करने के अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं कर सकता।

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और सूर्यकांत की पीठ ने कहा कि धारा 33(2)(b) के तहत अपने प्रथम दृष्ट्या विचारों को निर्धारित करने की प्रक्रिया के दौरान वे सज़ा की आनुपातिकता पर भी ग़ौर नहीं कर सकते।

अदालत जॉन डिसूज़ा बनाम कर्नाटक एसआरटीसी मामले में किसी कामगार को नौकरी से निकालने की अनुमति देने या उसे अस्वीकार करने के क्रम में श्रम अदालत या औद्योगिक ट्रिब्यूनल की जांच की सीमा पर ग़ौर कर रही थी।

पीठ ने कहा,

"अधिनियम की धारा 33(2)(b) …के तहत होने वाली जांच के माध्यम से श्रम अदालत या कोई और संबंधित संस्थान यह पता करेगी कि कामगार को दंडित करने का कोई और अज्ञात कारण तो नहीं है या उसे किसी ऐसे दुर्व्यवहार के लिए दंडित करने का प्रयास तो नहीं किया जा रहा है जो उसने किया ही नहीं है।


धारा 33(2)(b) के तहत जांच के दौरान श्रम अदालत/ट्रिब्यूनल इस बात का याद रखेगा कि इस तरह की संक्षिप्त कार्यवाही औद्योगिक विवाद में फ़ैसला करने का उसका अधिकार अधिनियम की धारा 10(i)(c) और (d) के तहत औद्योगिक विवाद सुलझाने के लिए मिले अधिकार के बराबर नहीं है। उसे इस बात पर भी ग़ौर करने का अधिकार नहीं है कि सज़ा कितनी दी जाए, क्योंकि इसके लिए उसे अधिनियम की धारा 11A की शरण में जाना पड़ेगा। इस तरह श्रम अदालत/ट्रिब्यूनल अगर आंतरिक जांच को दोषपूर्ण नहीं पाता है और यह समझता है कि न्यायपूर्ण और उचित सिद्धांत को अपनाया गया है, तो उस स्थिति में वे कामगार के ख़िलाफ़ नियोक्ता की कार्रवाई को अपनी सहमति दे सकते हैं पर इससे कामगार के अधिकार के प्रति किसी भी तरह की दुर्भावना नहीं तैयार होनी चाहिए…"।

अदालत ने स्पष्ट किया कि धारा 33(2)(b) के तहत दिया गया सहमति का आदेश धारा 10(i)(c) और (d) के तहत बाध्यकारी नहीं रह जाता है और इसका निर्णय पक्षों द्वारा अदालत में पेश किए गए साक्ष्यों पर श्रम अदालत/ट्रिब्यूनल के ग़ौर करने के दौरान स्वतंत्र रूप से होगा।

अदालत ने इस बारे में मैसूर स्टील वर्क्स प्रा. लि. बनाम जितेंद्र चंद्रा कर और लल्ला राम बनाम डीसीएम वर्क्स लि. मामले में आए फ़ैसले का हवाला भी दिया।

अदालत ने कहा कि श्रम अदालत या ट्रिब्यूनल धारा 33(2)(b) के तहत अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए पक्षों को कामगार के दुर्व्यवहार की आंतरिक जाँच की वैधता के बारे में साक्ष्य पेश करने का आदेश देने का अधिकार रखता है पर इस तरह के साक्ष्यों पर श्रम अदालत या ट्रिब्यूनल तभी ग़ौर करेगा जब उसको लगेगा कि प्रबंधन ने जो जांच कि है उसमें पेश किए गए साक्ष्य ऐसे नहीं हैं जो किसी भी संदेह से परे हैं और जो आंतरिक ख़ामियों से ग्रस्त है और स्वाभाविक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।

दूसरे शब्दों में, श्रम अदालत या ट्रिब्यूनल पहले आंतरिक जाँच में पेश किए गए साक्ष्यों की जाँच करने से पहले किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकता और स्वतः ही पक्षों को साक्ष्य पेश करने को नहीं कह सकता मानो यह धारा 33(2)(b) के तहत आवश्यक प्रक्रिया हो।

फैसले की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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