किराएदार अगर जानबूझकर किराया नहीं दे रहा है तो ही अदालत अपने असाधारण अधिकार का इस्तेमाल कर सकती है, सुप्रीम कोर्ट का फैसला

LiveLaw News Network

25 Sep 2019 5:28 AM GMT

  • किराएदार अगर जानबूझकर किराया नहीं दे रहा है तो ही अदालत अपने असाधारण अधिकार का इस्तेमाल कर सकती है, सुप्रीम कोर्ट का फैसला

    “ केवल दुराग्रहपूर्वक या जानबूझकर या मनमर्जी के कारण किराया नहीं चूकाने की स्थिति में ही संबंधित कोर्ट अपने असाधारण अधिकार का इस्तेमाल कर सकता है।"

    सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी है कि दिल्ली किराया नियंत्रण कानून, 1958 की धारा 15(7) के तहत किरायेदार का संरक्षण समाप्त करने का किराया नियंत्रक का अधिकार विवेकाधीन है, अनिवार्य नहीं।

    न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा, न्यायमूर्ति एम आर शाह और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की पीठ ने कहा कि केवल किराया देने में असफल रहना ही किरायेदार को मिलने वाला संरक्षण समाप्त करने के आदेश को न्यायोचित ठहराने के लिए काफी नहीं है, बल्कि दुराग्रहपूर्वक या जानबूझकर या मनमर्जी के कारण किराया नहीं चूकाने की स्थिति में ही संबंधित कोर्ट अपने असाधारण अधिकार का इस्तेमाल कर सकता है।

    पीठ ने 'दीनानाथ (मृत) बनाम सुभाष चंद सैनी' के मामले में फैसला सुनाते हुए कहा कि विवेकाधीन अधिकार का इस्तेमाल दुराग्रहपूर्ण अथवा जान-बूझकर चूक किये जाने के मामले में ही किया जाना चाहिए तथा किरायेदार एवं मकान मालिक के अधिकारों एवं बाध्यताओं के बीच संतुलन बनाये रखने के लिए सौहार्दपूर्ण तरीके से विचार करना चाहिए। अधिनियम, 1958 की धारा 15(7) के तहत मिले अधिकार को बहुत ही सावधानी और समझदारी के साथ इस्तेमाल किया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा,

    "महत्वपूर्ण बात यह है कि किरायेदार के संरक्षण के अधिकार को समाप्त करने या न करने का व्यापक विवेकाधीन अधिकार किराया नियंत्रक के पास होता है, लेकिन यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि संबंधित नियम की धारा 15(7) में प्रदत अधिकार का इस्तेमाल करके किरायेदार का संरक्षण समाप्त करने के कारण किरायेदार धारा 14 के तहत मिले संरक्षण के अधिकार से वंचित हो जाता है। इसलिए यह जरूरी है कि अधिनियम, 1958 की धारा 15(7) के तहत मिले किरायेदार नियंत्रक के अधिकार को बहुत ही सावधानी और समझदारी से इस्तेमाल किया जाना चाहिए।"

    दिल्ली एवं अजमेर किराया नियंत्रण कानून, 1958 की धारा 13(5) तथा 15(7) की तुलना करते हुए पीठ ने कहा कि धारा 15(7) के वैधानिक निर्देश से भिन्न किराया नियंत्रक इस अधिनियम, 1958 की धारा 15(1) के तहत जारी आदेश पर अमल करते हुए किराया न दे पाने की स्थिति में भी कब्जा खाली करने से उसे मिले संरक्षण से वंचित नहीं कर सकता और कंट्रोलर को इस अधिकार का इस्तेमाल करते वक्त प्रत्येक मामले के तथ्यों की जांच करनी चाहिए, जो निश्चित तौर पर न्यायपरक और विवेकपूर्ण हो।

    कोर्ट ने कहा,

    कानून में संशोधन के जरिये ''कोर्ट कब्जा छोड़ने के संरक्षण को खत्म करने का आदेश देगा" को हटाकर ''कंट्रोलर कब्जा छोड़ने के संरक्षण को खत्म करने का आदेश दे सकता है" किया गया था, जो किरायेदार के पक्ष में जान-बूझकर किया गया संशोधन है। यदि यह साबित हो जाये कि किरायेदार ने किराये का भुगतान नहीं किया या जमा नहीं कराया तो 1952 के अधिनियम के तहत कोर्ट के पास किरायेदार को मिला संरक्षण समाप्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, लेकिन 1958 के कानून के तहत कोर्ट के स्थान पर कंट्रोलर को ऐसे मामले में विशेष अधिकार दिया गया है, ताकि किसी मामले में यदि किराये का भुगतान न भी किया गया हो, लेकिन वह (कंट्रोलर) रिकॉर्ड में लाये गये तथ्यों के आधार पर संतुष्ट है तो वह मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किरायेदार को मिला संरक्षण समाप्त करने से इन्कार भी कर सकता है।"

    विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुए पीठ ने इस मामले में निम्न जवाब दिया :-

    "अधिनियम 1958 की धारा 15(7) के तहत निहित शक्तियों से संबंधित कानून की व्याख्या से स्पष्ट होता है कि विवेकाधीन अधिकार का इस्तेमाल दुराग्रहपूर्ण अथवा जान-बूझकर चूक किये जाने के मामले में ही किया जाना चाहिए तथा किरायेदार एवं मकान मालिक के अधिकारों एवं बाध्यताओं के बीच संतुलन बनाये रखने के लिए सौहार्दपूर्ण तरीके से विचार किया जाना चाहिए। अधिनियम, 1958 की धारा 15(7) के तहत मिले अधिकार को बहुत ही सावधानी और समझदारी के साथ इस्तेमाल किया जाना चाहिए।"



    Tags
    Next Story