विवाहित बेटियों को अनुकम्पा नियुक्ति योजना के लाभ से बाहर रखने को चुनौती देने वाली याचिका खारिज, पढ़ें हाईकोर्ट का आदेश
LiveLaw News Network
2 Sept 2019 10:52 AM IST
"आश्रितों के दायरे से विवाहित बेटी को बाहर रखना उचित है। वह अपने विवाहपूर्व परिवार पर निर्भर नहीं है।" यह टिप्पणी राजस्थान हाईकोर्ट ने की।
राजस्थान उच्च न्यायालय ने 'राजस्थान मृत सरकारी कर्मचारियों के आश्रितों को अनुकम्पा नियुक्ति नियम 1996' का लाभ प्राप्त करने से विवाहित बेटियों को बाहर करने के खिलाफ दाखिल एक चुनौती को खारिज कर दिया।
एक क्षमा देवी ने नियम 2 (c) की वैधता को चुनौती दी थी कि यह उस हद तक भेदभावपूर्ण और भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 के विपरीत है, जहाँ तक वह अपने दायरे से विवाहित बेटियों को बाहर रखता है।
संयुक्त रजिस्ट्रार/प्रबंध निदेशक, विरुधुनगर जिला केंद्रीय सहकारी बैंक लिमिटेड बनाम पी. असोथाई में मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले पर भरोसा किया गया। असोथाई में, याचिकाकर्ता को अनुकम्पात्मक नियुक्ति प्रदान करने से इनकार करने के लिए एक आधार यह था कि वह एक विवाहित बेटी थी। याचिका को अनुमति देते समय, डिवीजन बेंच ने यह माना था कि विवाह के आधार पर रोजगार से इनकार करना संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 का उल्लंघन है।
मद्रास हाईकोर्ट के इस दृष्टिकोण का पालन करने से इनकार करते हुए, पीठ ने, जिसमे मुख्य न्यायाधीश एस. रवींद्र भट और न्यायमूर्ति इंद्रजीत सिंह शामिल थे, कहा कि वह सुमेर कंवर बनाम राजस्थान राज्य के मामले में फैसले से बाध्य एवं सहमत है, जिसने नियम 2 (c) की वैधता को बरकरार रखा था ।
पीठ ने आगे कहा कि मद्रास उच्च न्यायालय ने जिस आधार पर आगे बढ़ने का निर्णय लिया वह गलत है क्योंकि इस योजना के तहत अनुकम्पात्मक नियुक्ति को पारिवारिक पेंशन प्राप्त करने के अधिकार के साथ बराबरी पर नहीं रखा जा सकता है। रिट याचिका को खारिज करते हुए, पीठ ने सुमेर कंवर में दी गई टिप्पणियों को मंजूरी देते हुए उद्धृत किया:
"हमारे विचार में, आश्रितों की परिभाषा का विस्तार करने का कार्य न्यायालयों के लिए नहीं है। यह नीति का विषय है। आश्रितों को पति/पत्नी, पुत्र, अविवाहित या विधवा बेटी, दत्तक पुत्र/दत्तक अविवाहित बेटी, मृतक शासकीय सेवक द्वारा कानूनी रूप से गोद लिए गए, के रूप में परिभाषित किया जाता है। विवाहित पुत्री को मृतक कर्मचारी पर आश्रित नहीं कहा जा सकता है।"
आश्रित की परिभाषा जीवनसाथी, पुत्र, अविवाहित या विधवा पुत्री, विधवा आदि को नियुक्ति देने की दृष्टि से है, अर्थात जो मृतक पर वास्तविक रूप से आश्रित हैं। ऐसे मामले राज्य सरकार की नीति के दायरे में हैं। ऐसे मामलों को परिभाषित करना राज्य सरकार के लिए है और नियम के दायरे का विस्तार करने का कार्य अदालत का नहीं नहीं है, क्योंकि अनुकम्पात्मक नियुक्ति का दावा अधिकार के रूप में नहीं किया जा सकता है।
नियम 2 (c) में परिभाषा को किसी भी तरह से असंवैधानिक और मनमाना नहीं कहा जा सकता है। आश्रितों के दायरे से विवाहित बेटी को बाहर रखना उचित है। वह अपने विवाहपूर्व परिवार पर निर्भर नहीं है। यह नियम है कि न्यायालय ऐसी नीति/नियमों के दायरे को नहीं बढ़ा सकते हैं। नीति/नियमों को फिर से लिखना, अदालत का कार्य नहीं है। नियम 2 (c) के प्रावधान को किसी भी तरह से अवैध या मनमाना नहीं कहा जा सकता है। "
उत्तराखंड उच्च न्यायालय: 'विवाहित बेटी', 'विवाहित पुत्र' के जैसे हमेशा परिवार की एक सदस्य होती है:
इस वर्ष की शुरुआत में, उत्तराखंड उच्च न्यायालय की एक पूर्ण पीठ ने कहा था कि, एक "परिवार" की परिभाषा में "एक विवाहित बेटी" को शामिल न करना, और अनुकम्पात्मक नियुक्ति के लिए उसके नाम का विचार किए जाने के अवसर से उसे वंचित करना, बावजूद इसके कि वह मृतक सरकारी कर्मचारी की मृत्यु के समय उसपर निर्भर थी, लैंगिक भेदभाव है और इस प्रकार मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
अदालत ने आगे कहा था कि एक "विवाहित बेटा" और एक "विवाहित बेटी" दोनों, जो मृतक सरकारी कर्मचारी पर निर्भर थे, वे अनुकम्पात्मक नियुक्ति हेतु विचार किये जाने के उद्देश्य से एक बराबरी पर खड़े थे।
अदालत ने यह स्पष्ट किया था कि मृतक सरकारी कर्मचारी के "परिवार" के सदस्यों में, जिसमें "विवाहित बेटी" भी शामिल है, एक विवाहित बेटी अनुकम्पात्मक नियुक्ति के लिए अपने नाम का विचार किये जाने की हकदार होगी, यदि वह मृतक सरकारी कर्मचारी की मृत्यु के समय उसपर निर्भर थी और यदि वह वर्ष 1974 और 1975 के नियमों में निर्धारित सभी अन्य शर्तों को पूरा करती है।