सीआरपीसी की धारा 482 : निचली अदालत के रिहाई आदेश को 'सम्मानजनक रिहाई' घोषित करने संबंधी याचिका स्वीकार करने योग्य नहीं : मद्रास हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

23 Nov 2019 6:12 AM GMT

  • सीआरपीसी की धारा 482 :  निचली अदालत के रिहाई आदेश को सम्मानजनक रिहाई घोषित करने संबंधी याचिका स्वीकार करने योग्य नहीं : मद्रास हाईकोर्ट

    मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ए. पी. शाही और न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद की खंडपीठ ने व्यवस्था दी है कि निचली अदालत द्वारा रिहाई के फैसले को 'सम्मानित रिहाई' घोषित करने की मांग को लेकर दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 के तहत दायर संशोधन याचिका सुनवाई योग्य नहीं है।

    एकल पीठ के 27 अप्रैल 2019 के आदेश के खिलाफ एक अपील दायर की गयी थी, जिसमें कहा गया था कि एकल पीठ ने याचिका में उठाये गये उसके सवालों के जवाब देने में त्रुटि की है। याचिका में कहा गया था कि एकल पीठ ने जो आदेश दिया है वह नियम 13(ई) के अनुरूप नहीं है। संबंधित अधिकारी ने अपने आदेश में कहीं नहीं लिखा है कि याचिकाकर्ता की पुलिस बल में तैनाती आपराधिक मामले में केवल शामिल होने मात्र से अहितकर होगी। गौरतलब है कि याचिकाकर्ता को आपराधिक मामले में बरी किया जा चुका था।

    अपीलकर्ता 18 दिसम्बर 2018 के उस आदेश का भी लाभ लेना चाह रहा था, जिसमें एकल पीठ ने सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर उस याचिका की सुनवाई की थी, जिसमें अपीलकर्ता की रिहाई को सम्मानित रिहाई घोषित करने का अनुरोध किया गया था।

    सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अधिकार क्षेत्र

    धारा 482- हाईकोर्ट के अंतनिर्हित अधिकार

    "इस संहिता का कोई प्रावधान हाईकोर्ट की अंतनिर्हित शक्तियों को वैसे आदेश जारी करने से नहीं रोकेगा या प्रभावित करेगा, जो इस संहिता के तहत आवश्यक हो, या किसी भी अदालत की प्रक्रिया में गड़बड़ी को रोकने अथवा न्याय को संरक्षित रखने के लिए जरूरी हो।"

    फैसले में विभिन्न मुकदमों की पड़ताल की गयी। फैसला कहता है कि संहिता की धारा 482 के तहत अंतनिर्हित शक्तियों के दायरे में हाईकोर्ट 'सम्मानित रिहाई' के पहलुओं की पड़ताल नहीं कर सकता, क्योंकि इस संहिता के तहत ऐसे बिंदुओं को परिभाषित नहीं किया गया था। इसलिए आपराधिक अदालत की ओर से जारी रिहाई आदेश की गुणवत्त्ता को लेकर इस तरह की राहत नहीं पाई जा सकती।

    कोर्ट ने कहा,

    "हमारे विचार से, यह मामला नया नहीं रह जाता है और इसका निपटारा इस तथ्य के साथ किया जाता है कि सीआरपीसी की धारा 482 के तहत किसी रिहाई आदेश को संशोधित करके उसे 'सम्मानित रिहाई' घोषित करने के अधिकार क्षेत्र के इस्तेमाल का अनुरोध कानून की नजर में नहीं टिकता। इसके लिए हमने 'पुलिस आयुक्त, नयी दिल्ली एवं अन्य बनाम मेहर सिंह (2013) के मामले के फैसले पर भरोसा किया है।"

    न्यायालय ने यह भी कहा कि जब संहिता की धारा 362 के तहत सक्षम अदालत कोई निर्णय देती है तो उसका अंतिम फैसला अपील या संशोधन पर आधारित रहता है, जहां पर यह वैधानिक रूप से प्रदान किया जाता है।

    "अंतिम निर्णय में भूल सुधार की सीमाओं का निर्धारण सीआरपीसी की धारा 362 में वर्णित सीमाओं से परिचालित है। वाक्यांश "अन्यथा न्याय के सिरों को सुरक्षित करने के लिए" को सीआरपीसी की धारा 482 के तहत पढ़ा जाना चाहिए, न कि दोषसिद्धि या रिहाई के संबंध में अदालत के अधिकार क्षेत्र के तहत दिये गये अंतिम फैसले में सुधार, व्याख्या, उसे कमजोर करने या किसी भी रूप में संशोधित करने के लिए।"

    कोर्ट ने कहा कि आपराधिक मामलों में त्रुटि सुधार की प्रक्रिया को सीआरपीसी की धारा 362 के तहत परिभाषित किया गया है और हाईकोर्ट सीआरपीसी की धारा 482 के तहत अंतर्निहित शक्तियों का इस्तेमाल करके अपनी किसी एक या प्रत्येक गलती में सुधार नहीं कर सकता।

    "इसलिए उपर उल्लेखित फैसलों की व्याख्या से यह स्पष्ट है कि आपराधिक मामलों की सुनवाई के अधिकार क्षेत्र वाली सक्षम अदालत द्वारा दिये गये फैसले को सीआरपीसी की धारा 62 के तहत प्रतिबंध के मद्देनजर बदलाव या संशोधित नहीं किया जा सकता। हालांकि इसमें देवेन्द्र पाल सिंह भुल्लर के मामले में वर्णित परिस्थितियों में आदेश वापस लेने का मामला अपवाद है।"

    पूर्व के निर्णयों पर अमल का सिद्धांत

    फैसले में यह व्यवस्था दी गयी है कि यदि एक ऐसा परिदृश्य तैयार होता है, जहां एकल पीठ को लगता है कि कुछ तथ्यों पर विचार नहीं किया गया, तो उस न्यायाधीश के पास किसी भी आधिकारिक घोषणा या कानून की स्थिति स्पष्ट करने के लिए मुख्य न्यायाधीश से आग्रह करने की आवश्यकता होती है। ऐसा कानून के बिंदुओं पर असंगत निर्णयों की संभावना से बचने और कानून के विकास में स्थिरता एवं निश्चिंतता को बढ़ावा देने के लिए किया गया था। इस बिंदु की समीक्षा के लिए चंद्र प्रकाश और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश सरकार एवं अन्य (2002) के मामले को उद्धृत किया गया।

    "यह अब तक अच्छी तरह से तय हो चुका है कि सिर्फ इसलिए कि एक और अभिनव तर्क या अधिक प्रशंसनीय दलील हो सकती है, कमतर संख्या की एक बेंच वृहद पीठ द्वारा पहले से दिये गये फैसले से अपनी असहमति दर्ज नहीं करा सकती है। यह पदानुक्रम की एक अदालत में न्यायिक अनुशासन के विपरीत होगा, जिसके जरिये सभी उच्च न्यायालय और शीर्ष न्यायालय शासित हैं।"

    नियम 13(ई) के तहत सहभागिता को व्याख्या के साथ पढ़ें-

    फैसले में व्यवस्था दी गयी है कि 'सहभागिता' शब्द मार्गदर्शक कारक है, क्योंकि संबंधित नियम उम्मीदवार द्वारा घोषणा का स्पष्ट प्रावधान करता है कि 'क्या वह आपराधिक मामले में शामिल था या नहीं।'

    इसके साथ ही, निर्णय में यह भी व्यवस्था दी गयी है कि ऐसे मामलों में नियुक्ति अधिकारी को निश्चित रूप से कुछ आजादी दी जानी चाहिए, क्योंकि इसमें हस्तक्षेप के कारण संबंधित पद के लिए उपयुक्त व्यक्ति के चयन के उनके विशेषाधिकार में खलल पड़ेगा।

    यद्यपि उम्मीदवार के संबंध में दस्तावेजी रिकॉर्ड पर निष्पक्ष विचार किया जाना चाहिए, लेकिन आपराधिक मामले में शामिल व्यक्ति की नियुक्ति के बारे में अधिकारी के आकलन का सम्मान किया जाना चाहिए।

    हालाँकि, नियुक्ति अधिकारी के आदेश में अपीलकर्ता की उम्मीदवारी को अयोग्य घोषित करने के कारणों का औचित्य नहीं बताया गया है या उसकी चर्चा नहीं की गयी है, इस प्रकार अपील स्वीकार की जाती है।

    आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहांं क्लिक करेंं




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