जिस माता या पिता को बच्चे की कस्टडी नहीं मिली है, उसे बच्चे से प्रतिदिन बात करने का अधिकार : सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

21 Jan 2020 8:47 AM GMT

  • जिस माता या पिता को बच्चे की कस्टडी नहीं मिली है, उसे बच्चे से प्रतिदिन बात करने का अधिकार : सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जिस माता या पिता को बच्चे की कस्टडी नहीं दी मिली है, उसे अपने बच्चे से प्रतिदिन 5-10 मिनट तक बात करने का अधिकार होना चाहिए।

    न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ ने कहा कि कस्टडी के मामलों से निपटने वाली अदालतों को कस्टडी के मुद्दों का फैसला करते समय स्पष्ट रूप से मुलाकात के अधिकारों की प्रकृति, तरीके और बारीकियों को परिभाषित करना चाहिए।

    न्यायालय एक पत्नी द्वारा दायर अपील पर विचार कर रहा था, जिसे हाईकोर्ट (पति द्वारा दायर एक हैबियस कॉर्पस याचिका) ने निर्देश दिया था कि वह अपनी नाबालिग बेटी के साथ यूएसए वापस चली जाए ताकि यूएसए का न्यायिक न्यायालय, इस संबंध में पहले से लंबित कार्यवाही में आगे के आदेश पारित करने में सक्षम हो सके।

    भले ही बच्चा दूसरे पैरेंट की कस्टडी में हो, हैबियस कॉर्पस रिट है सुनवाई योग्य

    पत्नी द्वारा दायर की गई अपील में एक विवाद, जिसके आधार पर हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती दी गई थी, वह यह था कि रिट याचिका सुनवाई योग्य नहीं थी। इस संबंध में, पीठ ने कहा कि,

    ''एक बच्चा एक निर्जीव वस्तु नहीं है जिसे माता-पिता एक पक्ष से दूसरे के पक्ष में उछालते रहें।''

    अगर बच्चा दूसरे माता-पिता की कस्टडी में है तो यह आग्रह करने के लिए आज बहुत देर हो चुकी है कि बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस) रिट है सुनवाई योग्य/अनुरक्षणीय नहीं है। इस संबंध में कानून पिछले कुछ समय में बहुत विकसित हुआ है, लेकिन अब यह एक स्पष्ट स्थिति है कि बच्चे के सर्वोत्तम हित के लिए, अदालत उसके असाधारण अधिकार क्षेत्र को लागू कर सकती है।

    कोई भी अदालत पत्नी को ऐसी जगह पर रहने के लिए मजबूर नहीं कर सकती जहां वह नहीं रहना चाहती

    इस मामले में, हाईकोर्ट ने पत्नी को निर्देश दिया था कि वह छह सप्ताह के अंदर अपनी नाबालिग बेटी के साथ यूएसए चली जाए ताकि यूएसए की न्यायिक अदालत इस संबंध में पहले से लंबित कार्यवाही में आगे के आदेश पारित करने में सक्षम हो सके।

    इस तरह के निर्देश को खारिज करते हुए पीठ ने कहा कि-

    ''पत्नी एक वयस्क है और कोई भी अदालत उसे उस जगह पर रहने के लिए मजबूर नहीं कर सकती, जहां वह नहीं रहना चाहती। एक बच्चे की कस्टडी एक अलग मुद्दा है, लेकिन एक बच्चे की कस्टडी का मुद्दा तय करते समय भी, हमारा स्पष्ट विचार है कि किसी वयस्क पति या पत्नी को इस तरह जाने का निर्देश नहीं दिया जा सकता है कि वह जाए और रिट अधिकार क्षेत्र में अन्य तनावग्रस्त जीवनसाथी के साथ रहे।''

    अदालतों का सौहार्द का सिद्धांत ( Doctrine of comity of courts ) बहुत ही स्वस्थ सिद्धांत है| यह भी देखा गया कि न्यायालयों की सौहार्द का सिद्धांत बहुत ही स्वस्थ सिद्धांत है।

    अदालत ने कहा कि-

    ''यदि अलग-अलग अधिकार क्षेत्र के न्यायालय एक-दूसरे द्वारा पारित आदेशों का सम्मान नहीं करते हैं, तो यह विभिन्न अधिकार क्षेत्र वाले न्यायालयों में विरोधाभासी आदेशों को जन्म देगा। इस संबंध में कोई कठोर और विशेष दिशा-निर्देश नहीं दिए जा सकते और प्रत्येक मामले का फैसला अपने तथ्यों पर करना होता है। हम फिर से दोहरा सकते हैं कि बच्चे का कल्याण हमेशा सर्वोपरि रहेगा।''

    मुलाकात के अधिकार और संपर्क के अधिकार

    पीठ ने कहा कि एक बच्चे की कस्टडी के मामलों का फैसला करते समय, प्राथमिक और सर्वोपरि विचार बच्चे का कल्याण है।

    पीठ ने कहा कि-

    ''एक बच्चा, विशेष रूप से कम उम्र के बच्चे को माता-पिता दोनों के प्यार, स्नेह, साथ, संरक्षण की आवश्यकता होती है। यह न केवल बच्चे की आवश्यकता है, बल्कि उसका मूल मानव अधिकार है। सिर्फ इसलिए कि माता-पिता के बीच में आपसी तनाव है या आपस में नहीं बनती है, इसका का मतलब यह नहीं है कि बच्चे को दो में से किसी एक माता-पिता की देखभाल, स्नेह, प्यार या सुरक्षा से वंचित किया जाना चाहिए।

    एक बच्चा निर्जीव वस्तु नहीं है जिसे एक माता-पिता से दूसरे के पाले में उछाल दिया जाए। हर अलगाव, हर पुनः मिलन से बच्चे पर दर्दनाक और मनो-दैहिक प्रभाव पड़ सकता है, इसलिए, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि अदालत प्रत्येक और हर परिस्थिति को बहुत सावधानी से देखे कि कैसे और किस तरीके से बच्चे की कस्टडी दोनों माता-पिता के बीच साझा की जानी चाहिए।

    यहां तक कि अगर कस्टडी माता-पिता में से किसी एक को दी जाती है, तो दूसरे के पास पर्याप्त मुलाकात करने का अधिकार होना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि बच्चा दूसरे माता-पिता के संपर्क में रहता है और दोनों माता-पिता में से किसी एक के साथ सामाजिक, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक संपर्क नहीं खोता है।

    यह केवल चरम परिस्थितियों में होना चाहिए कि किसी माता-पिता को बच्चे के साथ संपर्क करने या मिलने से इनकार कर दिया जाए। कस्टडी के मामलों से निपटने वाले न्यायालयों को कस्टडी के मुद्दों को तय करते समय स्पष्ट रूप से मुलाकात अधिकारों की प्रकृति, तरीके और बारीकियों को परिभाषित करना चाहिए।''

    संपर्क अधिकार की अवधारणा

    कोर्ट ने कहा कि, ''विज़िटेशन राइट्स यानि मुलाकात के अधिकार'' के अलावा, ''कॉन्टैक्ट राइट्स यानि संपर्क करने के अधिकार'' बच्चे के विकास के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। विशेषकर ऐसे मामलों में, जहां माता-पिता दोनों अलग-अलग राज्यों या देशों में रहते हैं।

    ''आधुनिक युग में संपर्क अधिकारों की अवधारणा टेलीफोन, ई-मेल या वास्तव में हम संपर्क की सबसे अच्छी प्रणाली महसूस करते हैं, यदि पक्षकारों के बीच उपलब्ध हो तो वीडियो कॉलिंग होनी चाहिए। इंटरनेट की बढ़ती उपलब्धता के साथ, वीडियो कॉलिंग अब बहुत आम है और बच्चों की कस्टडी के मुद्दे से निपटने वाली अदालतों को यह सुनिश्चित करना होगा कि जिस अभिभावक को बच्चे की कस्टडी से वंचित रखा गया है, वह अपने बच्चे से जितनी बार संभव हो सके बात कर सके।

    जब तक एक अलग दृष्टिकोण लेने के लिए विशेष परिस्थितियां नहीं होती हैं, तब तक जिस माता या पिता को बच्चे की कस्टडी से वंचित किया जाता है, उसे प्रतिदिन 5-10 मिनट के लिए अपने बच्चे से बात करने का अधिकार होना चाहिए। यह बच्चे और उस माता या पिता के बीच संबंध को बनाए रखने और सुधारने में मदद करेगा जो कस्टडी से वंचित है।

    यदि इस मेल मिलाप बनाए रखा जाता है तो बच्चे को छुट्टियों या छुट्टियों के दौरान एक घर से दूसरे घर जाने में कोई कठिनाई नहीं होगी। इसका उद्देश्य यह है कि यदि हम बच्चे को माता-पिता के साथ एक खुशहाल घर नहीं दे सकते हैं, तो बच्चे को माता या पिता के साथ दो खुशहाल घरों का लाभ दें।''

    पीठ ने कुछ निर्देशों को जारी करके अपील का निपटारा किया।

    केस का नाम- यशिता साहू बनाम राज्यस्थान राज्य

    केस नंबर-आपराधिक अपील नंबर 127/ 2020

    कोरम-जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस अनिरुद्ध बोस

    प्रतिनिधित्व- अपीलकर्ता के लिए वकील मालविका राजकोटिया और प्रतिवादी के लिए वकील प्रभजीत जौहर


    आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करेंं



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