"मेरे नाम पर नहीं" वकीलों ने बार काउंसिल के नागरिकता कानून पर प्रस्ताव से दूरी बनाई
LiveLaw News Network
26 Dec 2019 5:18 PM IST
बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा नागरिक सुरक्षा (संशोधन) अधिनियम, 2019 के विरोध में वकीलों की भागीदारी की निंदा करने को लेकर जारी 22.12.2019 के प्रस्ताव से देशभर के लगभग एक हजार वकीलों ने खुद को दूर कर लिया है और इस पर प्रतिक्रिया जारी की है।
वरिष्ठ अधिवक्ता अखिल सिब्बल, चंदर उदय सिंह, कॉलिन गोंजाल्विस, डेरियस खंबाटा, डॉ अभिषेक मनु सिंघवी, हुज़ेफ़ा अहमदी, इंदिरा जयसिंह, जनक द्वारकादास, कामिनी जायसवाल, कपिल सिब्बल, मधुकर राव, महालक्ष्मी पावनी, मोहन कटार्की, पीवी सुरेंद्रनाथ, राजीव पाटिल, रेबेका जॉन और वृंदा ग्रोवर आदि कुछ वकील हैं जिन्होंने जवाब पर हस्ताक्षर किए हैं और बीसीआई के प्रस्ताव का विरोध किया है।
प्रस्ताव का जवाब कहता है कि बीसीआई बार के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करता है और इस तरह के बयान जारी ना करने सलाह दी गई है क्योंकि यह केवल एक वैधानिक निकाय है जो भारत में सभी वकीलों को नियंत्रित करता है और कानूनी पेशे की विश्वसनीयता को सुरक्षित रखने के लिए जरूरी है।
"जबकि बीसीआई के अलग-अलग पदाधिकारी अपनी व्यक्तिगत क्षमता में अपनी राय व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हैं, बीसीआई के मंच का उपयोग कुछ के व्यक्तिगत विचारों को व्यक्त करने के लिए किया जा रहा है जो कि बीसीआई के सिद्धांतों के खिलाफ है।"
जवाब में कहा गया है कि यह स्पष्ट है कि ये प्रस्ताव सभी वकीलों की तरफ से लिए नहीं बोलता क्योंकि कई लोगों ने "न केवल नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 के अल्पसंख्यकों पर असमान प्रभाव, बल्कि पुलिस बलों की अधिकता के खिलाफ भी बात की है।" वकीलों ने दिल्ली पुलिस द्वारा विश्वविद्यालय के छात्रों पर किए गए हमलों के खिलाफ 21.12.2019 को जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के बाहर विरोध मार्च भी किया था।
जवाब में "अनपढ़ अज्ञानी जन" शब्द का उपयोग किया है, जिसका इस्तेमाल उन लाखों नागरिकों के लिए किया जाता है, जो प्रैक्टिस करते हैं और विरोध करने के अपने लोकतांत्रिक अधिकार को छोड़ देते हैं - "इस तरह के बयानों से बीसीआई के कद को फायदा नहीं होता है।" तथ्य यह है कि ये प्रस्ताव पुलिस और सशस्त्र बलों के साथ एकजुटता व्यक्त करता है और वकील शोएब मोहम्मद के साथ एकजुटता व्यक्त नहीं करता जिन्हें लखनऊ में हिरासत में लिया गया है और संविधान के सिद्धांतों को बरकरार रखने के लिए लड़ने वाले सैकड़ों वकीलों पर भी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई है।
"अधिवक्ता अधिनियम, 1961 में बीसीआई द्वारा पूरा करने वाले कुछ कर्तव्यों की परिकल्पना की गई है। इनमें व्यावसायिकता के मानकों को पूरा करना और देश में कानूनी शिक्षा के उच्चतम स्तर को ईमानदारी से सुनिश्चित करना शामिल है। बीसीआई की भूमिका यह सुनिश्चित करना है कि कानून और प्रक्रिया उचित पाठ्यक्रम द्वारा चले और विशेष रूप से राज्य द्वारा अधिकारों को लेकर न्याय पाने की कोशिशों में बाधा पैदा करने में।
राज्य के लिए अत्यधिक और अनावश्यक हस्तक्षेप बीसीआई का स्टैंड बनता जा रहा है। जब राज्य पर सत्ता के गंभीर दुर्व्यवहार के आरोप लगते हैं तो बीसीआई को इस तरह का फैसला पारित नहीं करना चाहिए। "
जवाब में प्रस्ताव के इस तर्क का उत्तर भी दिया गया है कि मामला लंबित है इसलिए वकीलों को लोगों को विरोध प्रदर्शन में भाग न लेने के लिए राजी किया जाना चाहिए।
इसमें कहा गया है कि माननीय उच्चतम न्यायालय के समक्ष चुनौती लंबित रहने पर नागरिकों के लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकार को वापस नहीं लिया जा सकता जो अधिनियम के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और पुलिस की ज्यादती का भी विरोध कर रहे हैं।
प्रतिक्रिया इस कथन के साथ समाप्त होती है कि "हम बीसीआई से आग्रह करते हैं कि वो गैर-पक्षपातपूर्ण तरीके से अपने वैधानिक कर्तव्यों का पालन करने करे और कोई भी राय व्यक्त करने से बचे जो न्याय प्रणाली में लोगों के विश्वास के लिए हानिकारक साबित हो सकता है।"