सबरीमाला पुनर्विचार याचिका की सुनवाई करने वाली बेंच का गठन, मूल फैसला देने वाली पीठ से कोई जज शामिल नहीं

LiveLaw News Network

7 Jan 2020 1:17 PM GMT

  • सबरीमाला पुनर्विचार याचिका की सुनवाई करने वाली बेंच का गठन, मूल फैसला देने वाली पीठ से कोई जज शामिल नहीं

    सबरीमाला पुनर्विचार याचिकाओं पर सुनवाई करने वाली नौ न्यायाधीशों की बेंच का गठन हो गया है। यह पीठ 13 जनवरी से मामले की सुनवाई शुरू करेगी।

    इस बेंच में ये न्यायाधीश शामिल हैं।

    सीजेआई एस ए बोबडे

    जस्टिस आर बानुमति

    जस्टिस अशोक भूषण

    जस्टिस एल नागेश्वर राव

    जस्टिस मोहन एम शांतनगौदर

    जस्टिस एस अब्दुल नजीर

    जस्टिस आर सुभाष रेड्डी

    जस्टिस बी आर गवई जस्टिस सूर्यकांत।

    उल्लेखनीय है कि 28 सितंबर, 2018 को इस मामले में मूल निर्णय देने वाली पीठ के न्यायाधीशों न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस आर एफ नरीमन और जस्टिस इंदु मल्होत्रा में से कोई भी न्यायाधीश पुनर्विचार पीठ में शामिल नहीं हैं।

    कोर्ट की पाँच जजों की पीठ ने 14 नवंबर को कुछ क़ानूनी मामलों को 3:2 के फ़ैसले से बड़ी पीठ को सौंप दी जबकि इसकी पुनर्विचार याचिका को लंबित रखा था।

    बहुमत की राय थी कि अपना धर्म मानने, उसका प्रचार करने से संबंधित संविधान के अधिकार की व्याख्या के मामले को बड़ी पीठ को सुनवाई करनी चाहिए ताकि इस बारे में कोई प्रामाणिक फ़ैसला दिया जा सके।

    बिंदु अम्मिनी और रेहाना फ़ातिमा की संरक्षण की याचिका पर ग़ौर करते हुए मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे ने कहा था कि 2018 का फ़ैसला अंतिम नहीं है। उन्होंने यह आश्वासन भी दिया था कि इस मामले पर अंतिम फ़ैसले के लिए वह सात जजों की पीठ का गठन कर सकते हैं।

    अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने तीन अन्य लंबित मामलों का भी ज़िक्र किया था जिसमें कुछ ऐसे मुद्दे थे जो एक-दूसरे से ओवरलैप कर रहे थे और 28 सितम्बर 2018 के सबरीमाला फ़ैसले में इसका ज़िक्र किया गया था।

    नौ जजों की पीठ के समक्ष विचार के निम्न बिंदु हो सकते हैं

    - (i) संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के मुद्दे और भाग III के ठाट ख़ासकर अनुच्छेद 14 के संदर्भ में ग़ौर किया जाना है।

    (ii) अनुच्छेद 25(1) के तहत जो 'आम व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य' की बात कही गई है उसका अर्थ क्या है?

    (iii) संविधान में 'नैतिकता' या 'संवैधानिक नैतिकता' को परिभाषित नहीं किया गया है। क्या यह प्रस्तावना के संदर्भ में व्यापक है या सिर्फ़ धार्मिक विश्वास या मत तक सीमित है। उस अभिव्यक्ति की रूप-रेखा को वर्णित करने की ज़रूरत है नहीं तो यह व्यक्तिपरक हो जाएगा।

    (iv) किसी भी व्यवहार के बारे में अदालत किस हद तक जाँच कर सकती है वह उस विशेष धर्म या धार्मिक मत को मानने का एक अभिन्न हिस्सा है और इसके निर्धारण का ज़िम्मा सिर्फ़ उस धार्मिक समुदाय के प्रमुख पर छोड़ा नहीं जा सकता।

    (v) संविधान के अनुच्छेद 25(2) के तहत 'हिंदुओं के एक वर्ग' वाक्य का क्या मतलब है?

    (v) किसी धार्मिक समुदाय या उसके एक वर्ग के 'ज़रूरी धार्मिक कार्य' को संविधान के अनुच्छेद 26 के तहत संरक्षण मिला हुआ है कि नहीं।

    (vi) किसी धर्म या उसके किसी समुदाय के धार्मिक कार्यों पर प्रश्न उठानेवाली किसी ऐसे व्यक्ति की याचिका जो ख़ुद उस धर्म का नहीं है, को किस हद की न्यायिक मान्यता प्राप्त है?



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