निजी संस्थानों द्वारा कर्मचारियों को नौकरी से हटाने, बर्खास्त करने और वेतन में कटौती करने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में नई जनहित याचिका
LiveLaw News Network
25 April 2020 9:00 AM IST
राजेश इनामदार और राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी सेना (पुणे में आईटी/ आईटीईएस/ बीपीओ/ केपीओ कर्मचारियों के कल्याण के लिए काम करने वाली एक यूनियन ) ने सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की है, जिसमें मांग की गई है कि श्रम और रोजगार मंत्रालय की तरफ से 20 मार्च को जारी एडवाइजरी, केंद्र सरकार के 29 मार्च के जीओ (GO) और विभिन्न राज्य सरकार के प्रस्तावों को लागू किया जाए। इन सभी के तहत निजी और सार्वजनिक, दोनों कंपनियों के नियोक्ताओं को यह निर्देश दिए गए हैं कि वे कोरोना के चलते केंद्र द्वारा लगाए गए लाॅकडाउन के दौरान अपने कर्मचारियों को नौकरी से हटाने/ निलंबित करने या उनके वेतन में कटौती करने का कार्य न करें।
याचिकाकर्ता अधिवक्ता राजेश इनामदार और राष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी कर्मचारी सेना के महासचिव हरप्रीत सलूजा ने स्पष्ट करते हुए कहा कि-
''वर्तमान याचिका नियोक्ताओं पर बोझ डलवाने के लिए इस माननीय न्यायालय से कोई निर्देश जारी करवाने के लिए दायर नहीं की गई है। हालांकि यह दलील दी गई कि नियोक्ताओं और कर्मचारियों के अधिकारों के बीच एक संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है। चूंकि कर्मचारी वर्ग अपने अधिकारों से वंचित हो रहा है।''
यह भी कहा गया कि-
''वर्तमान याचिका को केवल यह सुनिश्चित करने के लिए दायर किया जा रहा है कि इस अभूतपूर्व स्थिति में, जिसने पूरे देश का कामकाज लगभग ठप कर दिया है,इसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक /निजी क्षेत्रों में नौकरियों के नुकसान के रूप में एक असम्बद्ध आपदा न आ जाए। अगर ऐसा हुआ तो इससे देश पर एक विशाल मानव लागत या बेरोजगारी का भार भी आ जाएगा।
"हमारा देश पहले से ही आर्थिक संकट और बेरोजगारी के मुद्दों से उबरने की कोशिश कर रहा है,वहीं COVID-19 के तेजी से हुए प्रसार के कारण पूरी तरह नाकाबंदी की स्थिति में आ गई है और पूरे देश में लॉकडाउन घोषित कर दिया गया है। इसके कारण देश में पहले से मौजूद मुद्दों की स्थिति और खराब हो गई है।''
भारत सरकार ने बीस मार्च को एक एडवाइजरी जारी की थी, जिसमें विभिन्न सार्वजनिक/ निजी कंपनियों को कहा गया था कि वह अपने कर्मचारियों की छंटनी करने या सेवाएं समाप्त करने और उनके वेतन में कटौती करने का काम न करें। अधिसूचना में यह भी उल्लेख किया गया था कि यदि रोजगार के स्थान पर काम नहीं हो रहा है तो भी कर्मचारियों को ड्यूटी पर माना जाएगा।
प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कंपनियों से अनुरोध किया था कि कोरोनावायरस लॉकडाउन के कारण कर्मचारियों को नौकरी से न हटाएं/या उनकी सेवाएं न समाप्त करें और कर्मचारियों को पूर्ण वेतन /वेतन का भुगतान करें।
29 मार्च 2020 को, केंद्र सरकार ने लॉकडाउन आदेश को प्रभावी ढंग से लागू करने और प्रवासी श्रमिकों की आर्थिक कठिनाई को कम करने के लिए, आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 10 (2) (1) के तहत एक आदेश जारी किया था।
सभी राज्य सरकारों और केंद्रशासित प्रदेशों (एसजी/यूटी) को निर्देश दिया गया था कि वह औद्योगिक क्षेत्र और दुकानों और वाणिज्यिक संस्थानों के सभी नियोक्ताओं को आदेश जारी करें कि वह लाॅकडाउन की अवधि के दौरान काम बंद होने के बावजूद भी अनिवार्य रूप से अपने कर्मचारियों को नियत तिथि पर मजदूरी का भुगतान करें।
यह भी कहा गया कि देश की विभिन्न निजी कंपनियों ने अवैध रूप से बड़े स्तर पर कर्मचारियों को नौकरी से निलंबित करने,उनका वेतन रोेकने या वेतन में अवैध कटौती करने का काम शुरू कर दिया है। जो इन निर्देश/ एडवाइजरी का पूरी तरह से उल्लंघन है और वह देश में आए इस गतिरोध की स्थिति का लाभ उठा रहे हैं।
नियोक्ता इस समय प्रमुख स्थिति में है और कठोर निर्णय ले रहे हैं। वहीं कर्मचारियों के साथ गैर-जिम्मेदार सौदेबाजी भी कर रहे हैं। देश में एक बड़ी आबादी निजी कंपनियों की सेवा में है। ऐसे में उनके पास अपने रोजगार अनुबंधों के अलावा देश में कोई अन्य शरण नहीं है।
देश की विभिन्न आईटी/आईटीईएस कंपनियों में कई वर्षों से काम करने वाले कर्मचारियों को विभिन्न अधिनियमों अर्थात औद्योगिक विवाद अधिनियम आदि के तहत परिकल्पित प्रक्रिया का पालन किए बिना ही फोन करके उनकी सेवा समाप्ति की सूचना दी जा रही हैं। इसलिए सेवा समाप्ति का यह तरीका अवैध, अनुचित और सहूलियत पर आधारित है।
यह भी कहा गया कि नौकरी से हटाने से पहले नोटिस की अवधि, सरकारी प्राधिकरणों को सूचना देने, छंटनी मुआवजे का भुगतान, ग्रेच्युटी का भुगतान, अवकाश नकदीकरण आदि जैसी कोई भी प्रक्रिया इन कंपनियों द्वारा नहीं अपनाई जा रही है।
यह भी दलील दी गई कि वर्तमान महामारी से हुए इस लॉकडाउन के लिए कर्मचारी किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं हैं, लेकिन वहीं भुगत रहे हैं, इसलिए अगर निजी कंपनियों को कोई बाध्यकारी निर्देश जारी नहीं किया गया तो इस स्थिति में हजारों कर्मचारी अपनी नौकरी/ आय के जरिए को खो देंगे। जिससे एक अभूतपूर्व आर्थिक स्थिति पैदा हो जाएगी और ऐसी स्थिति को देश बर्दाश्त नहीं कर पाएगा।
यह इंगित किया गया कि सरकार ने सभी वाणिज्यिक संस्थानों, निजी कार्यालयों, औद्योगिक संस्थानों और कारखानों को लॉकडाउन के दौरान बंद करने का आदेश दिया था। लॉकडाउन की अवधि के बीच में जिन कर्मचारियों की सेवा एक फोन कॉल/ ईमेल के जरिए समाप्त की जा रही है, उनके पास इसका विरोध करने या स्पष्टीकरण मांगने का भी कोई विकल्प नहीं है। चूंकि इस तरह के फोन काॅल/ईमेल आने के तुरंत बाद लगभग सभी मामलों में कंपनी के ईमेल और अन्य प्लेटफॉर्म तक पहुंच को वर्जित कर दिया जाता है या प्रतिबंध लगा दिया जाता है।
वहीं कई मामलों में वेतन भी रोक दिए गए हैं और बिना किसी आधार के उनमें कटौती की जा रही है। अधिकांश आईटी कर्मचारी, जो अपने परिवार से दूर रहते हैं उनके लिए मासिक किराया, ईएमआई, दैनिक खर्च और अन्य देनदारियों का प्रबंधन करना भी मुश्किल हो रहा है।
तर्क दिया गया कि
''यह इंगित करना उचित है कि 19.04.2020 को सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई ) द्वारा पेश आंकड़ों के अनुसार, शहरी भारत में बेरोजगारी दर 30 दिन की औसत (प्रतिशत) 23.93 थी जबकि ग्रामीण भारत में 20.54 थी। यदि इस संबंध में कोई कदम नहीं उठाया गया तो बेरोजगारी का यह अनुपात और अधिक बढ़ जाएगा।''
याचिकाकर्ताओं का कहना है कि- ''अगर यह माननीय न्यायालय आदेश पारित नहीं करता है तो देश में एक अभूतपूर्व आर्थिक स्थिति पैदा हो जाएगी। जिससे ''मध्यम वर्ग'' के दायरे में आने वाले कई हजार व्यक्ति इससे बुरी तरह से और हानिकारक रूप में प्रभावित होंगे।''
यह भी प्रस्तुत किया गया कि अनियमित रूप से सामूहिक नौकरियों की समाप्ति और वेतन में देरी या कटौती के आर्थिक और सामाजिक प्रभाव बेहद गंभीर होंगे और इनका बहुत बड़ा और गंभीर मानवीय प्रभाव भी होगा। वहीं यह सब अनुच्छेद 14, 19 (1) (जी) और 21 के तहत मिले मौलिक अधिकारों का उल्लंघन भी है।
वरिष्ठ अधिवक्ता देवदत्त कामत द्वारा व्यवस्थित या निर्धारित की गई और एओआर अमित पई द्वारा दायर इस याचिका में यह भी सुझाव दिया गया है कि-''भले ही कर्मचारियों को नौकरी से न हटाने और वेतन में कटौती न करने के संबंध में कई राज्य सरकारों द्वारा जारी की गई एडवाइजरी का बाध्यकारी प्रभाव नहीं है परंतु राज्य सरकारों के पास इस संबंध में दुकान और प्रतिष्ठान विधानों के तहत निर्देश जारी करने का अधिकार है।''
यह आग्रह किया गया है कि
''नियोक्ताओं को उनकी कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी के तहत बाध्य किया जाए कि वे कर्मचारियों की सेवा समाप्त न करें या छंटनी न करें और उनके पूर्ण वेतन का भुगतान करें। ताकि इन कर्मचारियों को सड़कों पर आने और सड़कों पर काम करने वालों के साथ जुड़ने के लिए मजबूर न होना पड़े,जो अपने दो समय के खाने का प्रबंधन करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।'' चूंकि इससे '' संघ और राज्य सरकारों पर अत्यधिक और अनुचित बोझ बढ़ जाएगा।''