किसी मुकदमे की स्वीकार्यता याचिकाकर्ता की दलीलों पर निर्भर करती है, न कि प्रतिवादी के बचाव पर: बॉम्बे हाईकोर्ट
LiveLaw News Network
6 Jan 2020 11:11 AM IST
बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक वाद से संबंधित दीवानी संशोधन अर्जी खारिज करते हुए कहा कि किसी वाद की स्वीकार्यता (मेंटेनेबलिटी) वादी की दलीलों पर निर्भर करती है, न कि विपक्ष के बचाव पर। इस संशोधन अर्जी में याचिकाकर्ता मूल बचावकर्ता था।
न्यायमूर्ति दामा शेषाद्रि नायडू पुणे के सातवें अपर न्याधीश (स्मॉल कॉजेज कोर्ट) द्वारा चार अगस्त, 2015 को पारित फैसले के खिलाफ शामराव, लक्ष्मण और स्वप्निल कुलकर्णी की संशोधन अर्जी की सुनवाई कर रहे थे। अपने फैसले में ट्रायल कोर्ट ने नागरिक प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) की धारा 9(ए) और नियम 11, आदेश-7 के तहत बचावकर्ता की याचिकाएं खारिज कर दी थी।
मुकदमे की पृष्ठभूमि
विजय राहतकर ने आवेदकों (मूल प्रतिवादियों) के खिलाफ सितम्बर 2014 में मूल दीवानी मुकदमा दायर किया था, जिसमें उन्होंने अपने पास की प्रॉपर्टी के लिए उचित किराया निर्धारण की मांग की थी। वैकल्पिक रूप से, वह चाहते थे कि इस मुद्दे का फैसला ट्रायल कोर्ट करे।
वादी विजय के अनुसार, 991.47 वर्गमीटर की यह विवादित प्रॉपर्टी पुणे नगर निगम के तहत शिवाजी नगर के भामारुद्र में स्थित है। मालिकों ने मूल रूप से इसे दाजी हरि लेले को 99 साल के लिए पट्टे पर दिया था। चूंकि पट्टा लंबी अवधि के लिए था, उन्होंने संपत्ति के एक हिस्से पर एक घर का निर्माण किया और दिसंबर 1926 में वासुदेव एकनाथ मेंगले को बेच दिया। फिर वासुदेव ने भी, सितम्बर 1947 में प्रॉपर्टी के उत्तरी हिस्से में करीब 5062 वर्ग फुट उमाकांत भास्कर जोशी को पट्टे पर 72 साल के लिए दे दिया। उस हिस्से में उमाकांत ने एक मकान बनवाया। 1935 तक खाली जमीन ज्यादा नहीं बची थी।
1947 में वासुदेव मेंगले द्वारा खरीदा गया पट्टा-अधिकार मार्च 1991 में उनके वारिस ने विजय के पिता जसराज रत्नाकर के हाथों बेच दिया था। ऐसा पंजीकृत विलेख के जरिये किया गया था। इस प्रकार बेची गयी सम्पत्ति 991.47 वर्ग मीटर थी, जिसमें 280 वर्ग मीटर का एक ढांचा भी शामिल था। हस्तांतरित अधिकारों में 'निर्माण के मालिकाना अधिकार के साथ भविष्य में सबलीज लेने वालों अर्थात् उपपट्टेदारों तथा महादेव मेंगले द्वारा रखे गये किरायेदारों से किराया वसूलने का अधिकार शामिल हैं। रमेश देवरचंद मुथा और रवीन्द्र सिंघवी उपपट्टेदार हैं, जो वाद में चौथे प्रतिवादी हैं।
उसके बाद उपपट्टेदारों के बीच विवाद पैदा हुआ, जिसके परिणामस्वरूप दो अलग-अलग रिट याचिकाएं दायर की गयी थीं, बाद में इस मामले में समझौता हुआ। रमेश मुथा और रवीन्द्र सिंघवी, मेंगाले परिवार से प्राप्त सम्पत्ति के सभी अधिकार विजय एवं प्रतिवादी संख्या पांच को हस्तांतरित करने के लिए राजी हो गये। इसके बाद, प्रतिवादी- शामराव और लक्ष्मण ने शिरोले परिवार और सरस्वतीबाई मोरेश्वर कुलकर्णी के कानूनी वारिसों के बीच निष्पादित कथित बिक्री विलेख के आधार पर विवादित सम्पत्ति पर अधिकारर का दावा करना शुरू कर दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि वे स्वर्गीय सरस्वतीबाई के कानूनी वारिस हैं।
इसी क्रम में, वादी ने अक्टूबर 2013 में उन्हें एक नोटिस भेजा था, जिसमें कहा गया था कि वह मूल पट्टा विलेख की समान शर्तों के तहत नये सिरे से पट्टा विलेख निष्पादित करने को तैयार है। जनवरी 2014 में प्रतिवादियों ने कहा कि उनका लीज मार्च 2014 में खत्म होने वाला है। एक बार फिर वादी ने पहले और दूसरे प्रतिवादी को सूचित किया कि वह नया पट्टा विलेख निष्पादित करने को तैयार है, लेकिन प्रतिवादियों ने वादी को प्रॉपर्टी खाली करने को कहा। इस प्रकार, वादी ने मौजूदा दीवानी मुकदमा दायर किया।
इसके बाद प्रतिवादियों ने सीपीसी के नियम 11 आदेश-सात के तहत इस आधार पर वाद खारिज करने की मांग की कि वादी ने निर्धारित कोर्ट-फी जमा नहीं करायी है। उन्होंने यह भी कहा कि महाराष्ट्र किराया नियंत्रण कानून 1999 की धारा 33(एक)(सी) के तहत स्मॉल कॉजेज कोर्ट के समक्ष यह वाद चलाये जाने योग्य नहीं है। उन्होंने प्रॉपर्टी की प्रकृति पर भी सवाल खड़े किये और सीपीसी की धारा 9(ए) के तहत वादी के मुकदमे को नकारने की मांग भी की।
चार अगस्त 2015 को ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादियों की याचिका खारिज कर दी तथा उसी दिन इसने सीपीसी के नियम 11, आदेश 7 के तहत दायर अर्जी को भी ठुकरा दिया।
निर्णय
वकील अशोक तजाने ने वादी (बचाव पक्ष) की ओर से और वकील जे एस कापरे ने प्रतिवादियों (मूल याचिकाकर्ताओं) की ओर से जिरह की।
दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद कोर्ट ने प्रतिवादी के वकील की दलीलें स्वीकार करते हुए कहा :-
"प्रतिवादियों के वकील की दलीलें सही है कि किसी भी मुकदमे की स्वीकार्यता वादी की दलीलों पर निर्भर करती है, न कि बचाव पक्ष की दलीलों पर। यदि हम वादी के प्राक्कथनों को ध्यान से देखें तो यह पता चलता है कि यह वाद किरायेदारी और मकान मालिक तथा किरायेदार के संबंधों से जुड़ा है। प्रतिवादियों की दलीलों के अनुरूप, पेंचीदा विक्रय पत्र और संबद्ध पक्षों के बीच करार के अहदनामे की स्पष्ट कमी वाद के मेरिट से जुड़ी हैं और साक्ष्यों पर आधारित हैं। हम उन्हें पहले से निर्धारित नहीं कर सकते। न ही हम केवल इस पूर्वपक्ष के आधार पर किसी वाद को निरस्त कर सकते हैं कि उसका मामला बहुत कमजोर है, या उसने जो केस प्रस्तुत किया है वह अपुष्ट या निरुत्साही है।
कोर्ट फीस के मामले में भी, ट्रायल कोर्ट ने तर्क दिये हैं कि उसने इस मामले को शुरू में ही क्यों नहीं खारिज किया था।"
इस प्रकार कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के आदेश में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया और कहा:-
"इसलिए, इन परिस्थितियों के मद्देनजर, मुझे ऐसा कोई कारण नजर नहीं आता कि मैं सीपीसी की धारा 115 के तहत प्रदत्त शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए ट्रायल कोर्ट के आदेश में हस्तक्षेप करूं। निश्चित तौर पर, यह धारा न्यायिक त्रुटियों के बजाय न्यायिक अधिकार क्षेत्र को दुरुस्त करने से जुड़ी है।"
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