कर्नाटक हाईकोर्ट ने लश्कर के सदस्य की सजा को उचित ठहराया, उम्रकैद का फैसला रखा बरकरार

LiveLaw News Network

11 Dec 2019 4:30 AM GMT

  • कर्नाटक हाईकोर्ट ने लश्कर के सदस्य की सजा को उचित ठहराया, उम्रकैद का फैसला रखा बरकरार

    कर्नाटक हाईकोर्ट ने प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के सदस्य इमरान जलाल उर्फ बिलाल को दोषी करार दिए जाने और उसे आजीवन कारावास की सजा देने के फैसले को उचित ठहराया है।

    जलाल ने बैंगलुरु में निर्दोष लोगों को मारने और भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए प्रमुख आई कंपनी इन्फोसिस, विप्रो, आईटीपी, एचएएल और सचिवालय बिल्डिंग पर आतंकी हमलों को अंजाम देने की साजिश रची थी। पुलिस ने उसे हथियार और गोला बारूद के साथ वर्ष 2007 में गिरफ्तार किया था।

    न्यायमूर्ति रवि.मलीमथ और न्यायमूर्ति एच.पी.संधेश की खंडपीठ ने सजा को बरकरार रखते हुए कहा कि-

    ''अभियोजन द्वारा एकत्रित सामग्री इस तथ्य को पुष्ट करती है कि अभियुक्त के पास हथियार और गोला-बारूद, हथगोले और जिंदा कारतूस मिले थे। सामान्य तौर पर इनकार करने के अलावा, अभियुक्त की ओर से इस संबंध में कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया। अभियोजन पक्ष ने उचित संदेह से परे साबित कर दिया है कि अभियुक्त के पास यह सब था और अभियोजन पक्ष के गवाहों ने इसे सही साबित किया है।

    अभियोजन पक्ष के मामले को खारिज करने के लिए इन गवाहों के प्रति-परीक्षण में कुछ भी नहीं मिला है और इससे अलावा कोर्ट के समक्ष कोई ऐसी सामग्री नहीं है कि आरोपी को इस मामले में झूठा फंसाया गया है। अभियोजन पक्ष ने उचित संदेह से परे उनके मामले को साबित कर दिया है।''

    केस की पृष्ठभूमि

    यह आरोप लगाया गया था कि आरोपी ने प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के सक्रिय सदस्य के तौर पर वर्ष 2001 से 2007 की अवधि के दौरान अन्य लोगों के साथ मिलकर भारत सरकार या राज्य सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए इस्लामाबाद, श्रीनगर, मुंबई, पुणे,हम्पी, होस्पेट और बैंगलुरु जैसे स्थानों पर आपराधिक साजिश रची थी।

    5 जनवरी, 2007 को सुबह लगभग 5.10 बजे, आरोपी को रंगे-हाथ विस्फोटक पदार्थ जैसे हैंड ग्रेनेड ,गोला-बारूद और ए.के असॉल्ट राइफल आदि के साथ गिरफ्तार किया गया था। वह इन सबसे से प्रमुख आईटी कंपनी इन्फोसिस, विप्रो, आईटीपी, एचएएल, अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे और सचिवालय बिल्डिंग पर ब्लास्ट करने वाला था। ताकि निर्दोष लोगों को मार सके और इस तरह भारत सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए आतंकी प्रयास किया था।

    इस मामले को आगे बढ़ाते हुए बताया गया कि वर्ष 2001 से 2007 तक, लश्कर-ए-तैयबा के सक्रिय सदस्य आरोपी ने सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ने के इरादे से हथियार और गोला-बारूद इकट्ठा किया और जानबूझकर इनका अधिग्रहण किया। यह सभी उसके नियंत्रण में थे, जिसमें विशेष श्रेणी का विस्फोटक पदार्थ जैसे हैंड ग्रेनेड आदि थे और उसके पास यह समान रखने का कोई लाइसेंस नहीं था और वह उसे दिखाने में भी असफल रहा।

    आरोपी पर भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 121, 121-ए और 122, विस्फोटक पदार्थ अधिनियम, 1908 की धारा 5 (बी), आम्र्स अधिनियम 1959 की धारा 25 (1-ए) और 26 (2) और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967की धारा 20 और 23 (1) के तहत आरोप लगाए गए थे।

    अभियुक्त ने तर्क दिया

    जलाल ने इस आधार पर अपनी सजा को चुनौती देते हुए अपील दायर की थी कि अभियोजन पक्ष के गवाहों के असंगत और अनियंत्रित साक्ष्य को स्वीकार करके निचली अदालत ने एक त्रुटि की है। ट्रायल कोर्ट अभियोजन पक्ष के गवाहों के साक्ष्यों की गम्भीर और स्पष्ट चूक और विरोधाभासों पर ध्यान देने में विफल रही है जो अभियुक्त की बेगुनाही के अनुरूप हैं या उसे बेगुनाह साबित करती है।

    यह एक ऐसा मामला था, जिसमें अभियोजन पक्ष द्वारा की गई रिकवरी के आधार पर साजिश रचने का आरोप लगाया गया था, लेकिन अभियोजन पक्ष ने प्रत्यक्ष परिस्थितियों या अनुमानित परिस्थितियों द्वारा कोई ऐसा सबूत पेश नहीं किया है जिससे आरोपी की कथित संलिप्तता को साबित किया जा सके।

    अभियोजन पक्ष की दलीलें

    पी.डब्ल्यू या गवाह नंबर 1, 7, 9, 10, 11, 13 के बयान और साथ ही शिकायतकर्ता, जिसे आरोपी को गिरफ्तार करने, रिकवरी और जब्त किए गए सामान के संबंध गवाह नंबर 30 के रूप में पेश किया गया था, अपने बयानों पर टिके रहे। प्रतिबंधित सामान को जब्त किया गया और गवाह के प्रति-परीक्षण या जिरह में इस तरह कब्जे के बारे में कोई गड़बड़ी नहीं पाई गई। इसलिए अभियोजन पक्ष अभियुक्त की गिरफ्तारी और साथ ही अभियुक्त के इशारे पर प्रतिबंधित सामग्री को जब्त करने को साबित करने में कामयाब रहा है।

    अनुमोदन आदेश या स्वीकृति आदेश के संबंध में भी कोई विवाद नहीं है। एकमात्र विवाद यह है कि मंजूरी देने वाले प्राधिकरण ने सामग्री पर विचार नहीं किया है, जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। गवाह नंबर 1 एक स्वतंत्र गवाह है और उसने स्पष्ट रूप से कहा है कि आरोपी पहले ही बस से उतर चुका था। इसलिए, ड्राइवर, कंडक्टर या यात्रियों की जांच का सवाल ही नहीं उठता है।

    कोर्ट ने कहा कि-

    ''मंजूरी प्राधिकरण ने अपने दिमाग का प्रयोग किया है और एकत्र की गई सामग्री पर विचार किया है और मंजूरी आदेश में उसी का उल्लेख किया है। इसलिए, हमें अपीलकर्ता के लिए वकील की इन दलीलों में कोई बल नहीं लगा है कि वह कोई वैध अनुमोदन या स्वीकृति नहीं थी।''

    इस विवाद पर कि, क्या नीचे की अदालत ने अभियुक्त को उसके खिलाफ लगाए गए अपराधों के लिए दोषी ठहराने में त्रुटि की है?

    पीठ ने कहा कि-'

    ' महजर का चित्र बनाते हुए होस्पेट में उसके निवास स्थान पर आरोपी की निशानदेही पर सामान की जब्ती सिद्ध होती है। इसलिए, राज्य के राज्य लोक अभियोजक की इन दलीलों में दम है कि अभियोजन पक्ष उचित संदेह से परे साबित कर पाया है कि आरोपी की निशानदेही पर बेंगलुरु के साथ-साथ होस्पेट में प्रतिबंधित लेखों को जब्त किया गया था और स्वतंत्र गवाहों ने अभियोजन पक्ष के मामले का समर्थन किया है।

    यह भी ध्यान रखना आवश्यक है कि, गवाहों की जिरह में, कुछ भी ऐसा नहीं सुझाया गया है कि पुलिस की आरोपी के प्रति कोई दुर्भावना थी, ताकि उसके खिलाफ लगाए गए गंभीर अपराधों में उसे गलत तरीके से फंसाया जा सके। सिवाय इस सुझाव के कि आरोपी हम्पी में जम्मू और कश्मीर के निवासियों का समर्थन कर रहा था जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है। "

    जहां तक अपीलकर्ता के वकील की मुख्य दलील का संबंध है कि जांच अधिकारी द्वारा इन लेखों के स्रोत की न तो जांच की गई और न ही इनके बारे में पता लगाया गया। पीठ ने कहा

    ''जब अभियोजन यह साबित करने में सक्षम हो गया है कि अभियुक्त की निशानदेही पर इनको जब्त किया गया था, तो उसे गलत साबित करने की जिम्मेदारी अभियुक्त पर चली जाती है।''

    अधिवक्ता एस.बालकृष्णन याचिकाकर्ता के लिए उपस्थित हुए और अधिवक्ता वी.एम शेल्वन्थ राज्य के लिए पेश हुए।


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