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IT एक्ट की 66 A का अभी भी इस्तेमाल : SC ने अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का आश्वासन दिया, केंद्र को नोटिस जारी

LiveLaw News Network
7 Jan 2019 4:13 PM GMT
IT एक्ट की 66 A का अभी भी इस्तेमाल : SC ने अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का आश्वासन दिया, केंद्र को नोटिस जारी
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सुप्रीम कोर्ट ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66-A के निरंतर उपयोग को लेकर पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL) द्वारा दायर एक अर्जी पर केंद्र को नोटिस जारी किया है।

अपनी याचिका में पीयूसीएल ने कहा है कि वर्ष 2015 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस प्रावधान को रद्द करने के बावजूद इस प्रावधान के तहत 22 से अधिक लोगों पर मुकदमा चलाया गया है। इस मामले में पेश हुए अधिवक्ता संजय पारिख ने अदालत के समक्ष दलीलें दी जबकि अधिवक्ता संजना श्रीकुमार, अभिनव शेखरी, अपार गुप्ता और एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड सी. रमेश कुमार ने उनके सहायक की भूमिका निभाई।

मामले की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए न्यायमूर्ति रोहिंटन एफ. नरीमन और न्यायमूर्ति विनीत सरन की पीठ ने कहा कि यदि कोर्ट के आदेश का उल्लंघन किया गया है तो संबंधित अधिकारियों को गिरफ्तार किया जाएगा।अदालत ने इस संबंध में नोटिस जारी करते हुए केंद्र सरकार को 4 सप्ताह के भीतर जवाबी हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया।

दरअसल धारा 66-A को अक्सर "बेरहम" एवं "अंग्रेजों के जमाने का कानून" करार दिया जाता रहा है और इसके तहत कई निर्दोष व्यक्तियों की गिरफ्तारी की अनुमति दी गई थी जिसके चलते इसे रद्द करने के लिए जनाक्रोश उमड़ा था।

इसके चलते सुप्रीम कोर्ट ने मार्च, 2015 में श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ के मामले में इसे असंवैधानिक करार दिया था। अदालत ने फैसला दिया था कि इस प्रावधान ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) द्वारा गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन किया है और यह अनुच्छेद 19 (2) के तहत दिए गए उचित प्रतिबंधों के तहत नहीं आता है।

इंटरनेट फ़्रीडम फ़ाउंडेशन ने पिछले साल अक्टूबर में एक पेपर जारी किया जिसमें दावा किया गया था कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बावजूद, धारा 66-A का उपयोग पूरे भारत में किया जा रहा है।

अभिनव शेखरी और सह-लेखक अपार गुप्ता के पेपर ने धारा 66-A को एक "कानूनी ज़ोंबी" बताया, जिसमें कहा गया कि फैसले को तीन साल से अधिक समय बीत जाने के बावजूद, यह भारतीय आपराधिक प्रक्रिया का शिकार है। यह तर्क दिया गया कि यह गहरी संस्थागत समस्याओं के कारण है जिसके परिणामस्वरूप न्यायिक फैसले राज्यों में जमीनी स्तर पर नहीं पहुँच पाते हैं।

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