भले ही घरेलू हिंसा विदेश में हुई हो, भारतीय अदालत कर सकती हैं सुनवाई, बॉम्बे हाईकोर्ट ने भरण पोषण का आदेश बरकरार रखा

LiveLaw News Network

20 Oct 2019 5:22 AM GMT

  • भले ही घरेलू हिंसा विदेश में हुई हो, भारतीय अदालत कर सकती हैं सुनवाई, बॉम्बे हाईकोर्ट ने भरण पोषण का आदेश बरकरार रखा

    बॉम्बे हाईकोर्ट ने माना है कि भारतीय अदालत का किसी भारतीय नागरिक द्वारा विदेश में की गई घरेलू हिंसा के लिए भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498-ए के तहत शिकायत पर अधिकार क्षेत्र होगा।

    न्यायमूर्ति एसएस शिंदे ने मोहम्मद ज़ुबेर फ़ारूक़ी द्वारा दायर एक रिट याचिका पर सुनवाई की। ज़ुबेर ने मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, मुलुंड द्वारा उनकी पत्नी नीलिमा के पक्ष में पारित भरण पोषण के आदेश को रद्द करने की मांग की थी। कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि नीलिमा ने याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रथम दृष्टया घरेलू हिंसा का मामला दर्ज करवाया था।

    केस की पृष्ठभूमि

    याचिकाकर्ता के अनुसार, उन्होंने नीलिमा से मुस्लिम विधि के अनुसार 26 दिसंबर, 2008 को लखनऊ में शादी की। इसके बाद, जनवरी 2009 में, वे नीलिमा को लेकर उत्तरी कैरोलिना, संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए और 2012 में कैलिफोर्निया में स्थानांतरित हो गए। उनका एक 6 वर्षीय बेटा ज़ायन है।

    19 अगस्त 2014 को, नीलिमा ने अपने पति का घर छोड़ दिया और कोलंबस, इंडियाना में अपने भाई के घर चली गई। सितंबर में पति पत्नी में मुलाकात हुई और याचिकाकर्ता ने तलाक और बच्चे की कस्टडी के लिए याचिका कैलिफोर्निया में दायर की।

    याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि 14 से 20 जनवरी, 2015 के बीच नीलिमा को सम्मन भेजने के लिए कई प्रयास किए गए, लेकिन उसने जानबूझकर सम्मन स्वीकर नहीं किया।

    21 जनवरी, 2015 को नीलिमा भारत आई और मेरठ में रहने लगी। मई में, याचिकाकर्ता ने नीलिमा को भारत में तलाक दे दिया और एक साल बाद जुलाई 2016 में नीलिमा ने बांद्रा में फैमिली कोर्ट के समक्ष बच्चे की कस्टडी की याचिका दायर की। उसने याचिकाकर्ता के खिलाफ अक्टूबर, 2016 में प्राथमिकी दर्ज करवाई।

    इसके बाद, नवंबर 2016 में, कैलिफोर्निया की सुपीरियर कोर्ट ने याचिकाकर्ता को ज़ायन की कस्टडी देने का आदेश पारित किया। 18 नवंबर, 2016 को कैलिफोर्निया सुपीरियर कोर्ट ने याचिकाकर्ता के लिए गिरफ्तारी का वारंट जारी किया।

    नीलिमा ने मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट कोर्ट, मुलुंड के समक्ष घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 से महिलाओं की सुरक्षा की धारा 12 के तहत मामला दर्ज करवाया। मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने 18 मार्च, 2017 को भरण पोषण का आदेश दिया। 23 जून, 2017 को सत्र न्यायालय ने याचिकाकर्ता द्वारा दायर आपराधिक अपील को खारिज कर दिया।

    दोनों पक्षों के तर्क

    याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता प्रशांत पांडे पेश हुए और उन्होंने तर्क दिया कि मजिस्ट्रेट कोर्ट के सामने शिकायत दर्ज करने में दो साल से ज्यादा की देरी की गई। इस देरी के कारण मजिस्ट्रेट को शिकायत को खारिज कर देना चाहिए था।

    उन्होंने आगे तर्क दिया कि मजिस्ट्रेट के पास शिकायत को सुनने का कोई क्षेत्र अधिकार नहीं था, क्योंकि कथित घरेलू हिंसा भारत में नहीं हुई थी। नीलिमा का मुंबई में रहना अस्थायी है और इसलिए, शिकायत को सुनने के लिए मजिस्ट्रेट के पास कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है।

    पांडे ने उन आरोपों का भी खंडन किया कि याचिकाकर्ता ने नीलिमा को अपने मास्टर डिग्री प्रोग्रम को बंद करने के लिए मजबूर किया गया और उसे कैलिफोर्निया आने के लिए कहा और उसे गर्भावस्था के दौरान कड़ी मेहनत करने के लिए दबाव बनाया।

    दूसरी ओर, एडवोकेट शाहीन ने प्रतिवादी पत्नी (नीलिमा) की ओर से प्रस्तुत किया कि वह उस याचिकाकर्ता पर आर्थिक रूप से निर्भर है जो 100,000 डॉलर से अधिक वेतन के साथ संयुक्त राज्य की सरकार के साथ कार्यरत है।

    यह देखते हुए कि 30,000 रुपए की भरण पोषण की राशि अपर्याप्त थी, शाहीन ने प्रस्तुत किया कि उसके पति ने उसे लगातार तलाक की धमकी दी थी और 2015 में जब उसने याचिकाकर्ता से वीजा के नवीकरण के बारे में कहा तो उसने साफ इनकार कर दिया।

    नीलिमा के वकील ने कहा कि अब तक, याचिकाकर्ता ने बकाया राशि का भुगतान करने का वचन देने के बावजूद भरण पोषण की राशि का केवल 60% भुगतान किया है।

    अधिवक्ता शाहीन ने निकिता बनाम यदविंदर सिंह और अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया था ताकि उनके केस को प्रमाणित किया जा सके।

    अदालत का निर्णय

    उपरोक्त निर्णय में, यह कहा गया कि पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा की गई क्रूरता के कृत्यों के कारण पति का घर छोड़ने के बाद महिला ने जिस स्थान पर आश्रय लिया है, वहां स्थिति न्यायालय में भारतीय दंड संहिता की धारा 498A के तहत आरोप पर सुनवाई का अधिकार क्षेत्र होगा।

    कोर्ट ने यह कहा कि उपरोक्त निर्णय रूपाली देवी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य में दिए गए फैसले पर आधारित था। न्यायमूर्ति शिंदे ने कहा,

    "प्रतिवादी नंबर 2 ने हलफनामे में कहा है कि, वह अपने भाई के साथ मुंबई में रह रही है। उक्त पहलू पर सत्र न्यायालय ने विचार किया है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के प्रकाश में और नीचे दोनों न्यायालयों द्वारा किए गए अवलोकन के बाद याचिकाकर्ता के वकील के तर्क में कोई ऐसा तत्व नहीं है कि यह माना जाए कि मुंबई में मजिस्ट्रेट की अदालत के पास शिकायत पर सुनवाई करने क्षेत्राधिकार नहीं था। "

    कोर्ट ने अधिवक्ता पांडे के इस तर्क को मानने से इनकार कर दिया कि शिकायत दर्ज करने में अनावश्यक देरी हुई और अदालत ने देखा कि-

    "अब तक धारा 12 के तहत कार्यवाही दायर करने की सीमा का सवाल है, कृष्ण भट्टाचार्य बनाम सारथी चौधरी और एक अन्य के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि " निरंतर अपराध "की अवधारणा के संदर्भ में अपीलकर्ता पत्नी द्वारा अपनी मांगों के लिए अधिनियम 2005 की धारा 12 के तहत न्यायिक पृथक्करण के लगभग 2 वर्षों के बाद दी गई अर्जी, सीमा द्वारा प्रतिबंधित नहीं है। "

    कोर्ट ने कहा कि अप्रैल 2018 में लिखित में स्वीकार करने के बावजूद, याचिकाकर्ता को भरण पोषण की राशि के बकाया का भुगतान करना बाकी है। अदालत ने मजिस्ट्रेट के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया-

    "निचले न्यायालयों द्वारा दर्ज तथ्यों के समवर्ती निष्कर्ष हैं। प्रतिवादी नंबर 2 अंतरिम भरण पोषण के लिए हकदार है। वे निष्कर्ष रिकॉर्ड पर रखी गई सामग्री के अनुरूप प्रतीत होते हैं। इस आदेश में हस्तक्षेप का कोई कारण नहीं है, इसलिए, रिट याचिका को खारिज किया जाता है। "

    अदालत का फैसला डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें


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