Begin typing your search above and press return to search.
ताजा खबरें

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, उच्च न्यायालयों को निचली अदालत के जजों के खिलाफ सख्त टिप्पणी नहीं करनी चाहिए

LiveLaw News Network
9 Sep 2019 11:18 AM GMT
सुप्रीम कोर्ट ने कहा,  उच्च न्यायालयों को निचली अदालत के जजों के खिलाफ सख्त टिप्पणी नहीं करनी चाहिए
x

सुप्रीम कोर्ट ने पिछले महीने दिए गए अपने एक आदेश में कहा है कि उच्च न्यायालयों को सिर्फ इसलिए निचली अदालतों के जजों के खिलाफ सख्त टिप्पणी नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह उनके विचारों से सहमत नहीं हैं।

जस्टिस दीपक गुप्ता व जस्टिस अनिरूद्ध बोस की पीठ इस मामले में एक न्यायिक अधिकारी की तरफ से दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी। इस न्यायिक अधिकारी के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट ने न सिर्फ सख्त टिप्पणी की थी, बल्कि दस हजार रुपए जुर्माना भी लगा दिया था।

हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी जज सुरेंद्र प्रसाद मिश्रा के खिलाफ की थी, जो मोटर एक्सीडेंट क्लेम ट्रिब्यूनल के जज थे। जज मिश्रा के आदेश के खिलाफ दायर अपील का निपटारा करते हुए हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी की थी।

इस टिप्पणी में उनके यथार्थ पर सवाल उठाया गया और उनकी ईमानदारी पर भी उंगलियां उठी। इतना ही नहीं, उन पर एक वकील का पक्ष लेने का भी आरोप लगाया गया। इस मामले में यह भी निर्देश दिया गया कि मामले को प्रशासन के पास भेज दिया जाए, ताकि उचित कार्रवाई की जा सके।

जज मिश्रा की तरफ से दायर अपील पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जज के खिलाफ फैसले में जितनी भी टिप्पणी की गई हैं,चाहे वह उनकी ईमानदारी पर उठाए गए सवाल हों या उनके न्यायिक आदेश पर शंका की गई हो या कोई अन्य टिप्पणी, सभी के सभी समाप्त करने लायक हैं।

पीठ ने इस मामले में पहले के कई फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि किसी फैसले में आमतौर पर न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ पर इस तरह की टिप्पणी नहीं की जानी चाहिए। पीठ ने कहा कि-

"हम एक ऐसी प्रणाली का पालन करते है,जहां पर किसी कोर्ट का फैसला उच्च न्यायालयों द्वारा की जाने वाली न्यायिक जांच के अधीन होता है। फैसला ठीक या गलत हो सकता है,परंतु उच्च न्यायालयों को निचली अदालतों के जजों के खिलाफ सिर्फ इसलिए इस तरह की सख्त टिप्पणी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह निचली अदालत के विचार से सहमत नहीं है।"

कोर्ट ने कहा कि अगर किसी मामले में हाईकोर्ट को ऐसा लगता है कि मामले में कार्यवाही किए जाने की जरूरत है तो इसके लिए उचित प्रक्रिया यह है कि वह मामले को प्रशासनिक स्तर पर मुख्य न्यायाधीश के पास भेज दे, जिसके साथ आग्रह किया जा सकता है कि संबंधित न्यायिक अधिकारी के खिलाफ उचित कार्यवाही की जाए।

इस मामले में हाईकोर्ट ने ऐसा ही किया परंतु साथ में उसके खिलाफ तीखी टिप्पणी भी कर दी, जिसका अर्थ यह था कि प्रार्थी उसके खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू होने से पहले ही दण्डित महसूस कर रहा था।

पीठ ने यह भी कहा कि-

हाईकोर्ट निश्चित तौर पर यह कह सकती है कि जज द्वारा पारित किया गया आदेश कानून के ज्ञान की कमी को बता रहा था, परंतु जब हाईकोर्ट ने इससे आगे बढ़कर न्यायिक अधिकारी को फटकार दिया और उन्हें आयोग्य व भ्रष्ट व्यक्ति बता दिया। हमारा मानना है कि ऐसा करके हाईकोर्ट ने अपनी सीमाओं को पार किया, इसलिए इस तरह की टिप्पणियों को समाप्त करने की आवश्यकता है।

पीठ ने उस आदेश को भी खारिज कर दिया है, जिसके तहत न्यायिक अधिकारी पर हजार रुपए हर्जाना लगाया गया था। पीठ ने कहा कि आमतौर पर कोर्ट के न्यायिक अधिकारी पर जुर्माना नहीं लगाया जाता है और इस तरह के प्रचलन को बढ़ावा नहीं देना चाहिए।

वकीलों के बीच हुए विवाद के कारण मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण में केस दायर करने वालों को नहीं होनी चाहिए कोई परेशानी :

हाईकोर्ट के फैसले ने एमएसीटी जज की निम्नलिखित कार्रवाई को रोक दिया। एक एमएसीटी के मामले में दावा करने वाले व बीमा कंपनी के बीच समझौता हो गया था। इसी समझौता की याचिका पर एक वकील ने अपने हस्ताक्षर करके उसे कोर्ट में दायर कर दिया था। इसी समय दूसरे वकील ने आपत्ति जाहिर करते हुए कहा कि उसकी फीस नहीं दी गई। इसलिए समझौते को दर्ज नहीं किया जाना चाहिए। जो कि न्यायिक अधिकारी के पक्ष में पाया गया।

हाईकोर्ट के आदेश पर सहमति जताते हुए एमएसीटी के आदेश को रद्द करते हुए पीठ ने कहा कि-

यह किसी कोर्ट का काम नहीं है कि वह फीस को लेकर वकीलों के बीच हुए विवाद को निपटाए। अगर किसी एक वकील ने दूसरे वकील को किसी मामले में धोखा दिया है तो सामान्यतौर पर यह मामला बार काउंसिल के पास जाता है, न कि कोर्ट उसमें समझौता करवाए। हाईकोर्ट ने यह ठीक कहा है कि वकीलों के बीच हुए विवाद के कारण मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण में दावा करने वालों को परेशानी नहीं होनी चाहिए।



Next Story