शैक्षणिक संस्थान संचालित करने के अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकार को छोड़ा नहीं जा सकता : सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

26 Sep 2019 10:36 AM GMT

  • शैक्षणिक संस्थान संचालित करने के अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकार को छोड़ा नहीं  जा सकता : सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत शैक्षणिक संस्थानों को संचालित करने के लिए अल्पसंख्यकों के मौलिक अधिकार का अधित्यजन (waive) नहीं किया जा सकता।

    इस मामले में मुद्दा [चंदना दास (मालाकार) बनाम पश्चिम बंगाल राज्य] था कि क्या खालसा गर्ल्स हाई स्कूल अल्पसंख्यक संस्थान है, यदि हां, तो क्या शिक्षकों के चयन और नियुक्ति के लिए संस्थान का अधिकार पश्चिम बंगाल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन एक्ट, 1963 के प्रावधानों के तहत गठित मान्यता प्राप्त गैर-सरकारी संस्थानों के प्रबंधन के नियम, 1969 के किसी भी तरह के प्रावधानों से प्रभावित होंगे ?

    एक अन्य पीठ के विभाजित फैसले से उत्पन्न संदर्भ का दिया गया मौजूदा मामले में जवाब

    न्यायमूर्ति आर. एफ. नरीमन, न्यायमूर्ति आर. सुभाष रेड्डी और न्यायमूर्ति सूर्य कांत की पीठ उस संदर्भ का जवाब दे रही थी जो एक अन्य पीठ (न्यायमूर्ति टी. एस. ठाकुर और न्यायमूर्ति आर. बानुमति) द्वारा दिए गए विभाजित फैसले से उत्पन्न हुआ था। इसमें एक न्यायाधीश (न्यायमूर्ति बानुमति) ने कहा था नियम 8 (3) के संदर्भ में विशेष संविधान को स्वीकार करने वाले स्कूल को यह तर्क देने से रोका जाएगा कि यह नियम 33 के तहत राज्य द्वारा निर्धारित विशेष नियमों द्वारा शासित अल्पसंख्यक संस्थान है।

    स्कूल की प्रबंध समिति को एक विशेष संविधान बनाने के लिए पश्चिम बंगाल बोर्ड ऑफ सेकंडरी एजुकेशन के सचिव के पत्र का हवाला देते हुए कि पीठ ने यह कहा:

    इस दस्तावेज़ के पढ़ने पर यह स्पष्ट है कि नियम 6 में प्रबंधन बोर्ड में सिख समुदाय के केवल एक प्रतिनिधि की आवश्यकता होती है जबकि इसमें 3 प्रतिनिधि नियुक्त किए जाते हैं। समान रूप से, नियम 6 के लिए आवश्यक है कि चुने जाने के लिए छह अभिभावक प्रतिनिधि हों जबकि इस पत्र के लिए केवल 4 ही प्रदान किए गए हैं।

    इस प्रकार, यह नहीं कहा जा सकता है कि इस पत्र की स्वीकृति से, उत्तरदाता नंबर 4 ने किसी भी तरीके से, असमान रूप से अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में व्यवहार किए जाने के अपने अधिकार को छोड़/अधित्यक्त (waive) कर दिया। इसके विपरीत, 19 अप्रैल, 1976 को दिए गए आवेदन का मकसद अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में मान्यता देना था और केवल इसलिए कि नियम 8 (3) को कथित रूप से लागू किया गया था, इसका मतलब यह नहीं है कि स्कूल के भविष्य के प्रबंधन के लिए विशेष संविधान तैयार करते समय संस्था का अल्पसंख्यक चरित्र ध्यान में नहीं रखा गया था। इस तथ्य पर, इस बात की सराहना करना कठिन है कि उत्तरदाता संख्या 4 के लिए यह कैसे कहा जा सकता है कि इसने एक भाषाई अल्पसंख्यक संस्था के रूप में अपने अधिकार छोड़ (waive) दिए हैं, जिसे भाषाई अल्पसंख्यक संस्थान, अर्थात् पश्चिम बंगाल राज्य में सिखों द्वारा स्थापित किया गया है।

    पीठ ने टी. एम. ए. पाई फाउंडेशन बनाम कर्नाटक राज्य समेत संविधान पीठ के विभिन्न निर्णयों का भी उल्लेख किया, जिसमें अदालत ने यह माना था कि यदि स्कूल अल्पसंख्यक संस्थान है तो मान्यता प्राप्त गैर-सरकारी संस्थानों के प्रबंधन के नियम 28 (सहायता प्राप्त एवं गैर-सहायता प्राप्त) 1969 के नियम, संभवतः लागू नहीं हो सकते क्योंकि ये अपनी पसंद के शिक्षकों के साथ संस्था का प्रबंधन करने के लिए स्कूल प्रबंधन के अधिकार का गंभीर उल्लंघन होगा। पीठ ने कहा:

    हम मानते हैं कि यह नहीं कहा जा सकता कि प्रतिवादी संख्या 4 को किसी भी तरीके से, इस मामले के तथ्यों पर अपनी अल्पसंख्यक स्थिति का दावा करने से रोक दिया गया है। इसके अलावा, यह कानून है कि अनुच्छेद 30 के तहत मौलिक अधिकार का अधित्यजन नहीं किया जा सकता है। इस संबंध में पीठ ने अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कॉलेज सोसाइटी बनाम गुजरात राज्य और निजता के मामले में के. एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ के फैसले का उल्लेख किया।



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