सुप्रीम कोर्ट ने कहा, अलगर की पहाड़ियों के जंगल किसी देवता के नहीं
LiveLaw News Network
9 Nov 2019 10:45 AM IST
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को मद्रास हाईकोर्ट के उस फैसले को ख़ारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि अलगर पहाड़ी के सारे जंगल अरुलमिगु कल्लालगर थिरुकोली अलगर कोइल देवता के हैं।
न्यायमूर्ति एल नागेश्वर राव और हेमंत गुप्ता की पीठ ने कहा कि समाप्त हुए अनुदान के अनुमान को उस समय लागू नहीं किया जा सकता जब कब्जे के दावे के सन्दर्भ में निरंतर कब्जे का कोई सबूत नहीं है।
पेरिया जीर स्वामीगल मठ के सुंदर रामानुज प्रिय जीर स्वामीगल, तिरुपति एवं अन्य ने मामला दायर कर अलगर पहाड़ी के सम्पूर्ण जंगल को श्री अरुलमिगु कल्लालगर जिन्हें श्री सुन्दराजसामी या सुंदर बहु या परमसामी भी कहा जाता है और जो मंदिर का मुख्य देवता है उसके नाम घोषित करने की मांग की थी।
निचली अदालत ने इस मामले को खारिज कर दिया और सरकार की इस दलील से इत्तफाक जताया की विवादित परिसंपत्ति को 1881 में सुरक्षित वन क्षेत्र घोषित किया गया था और निचली अदालत ने इसे स्वीकार किया है। हाईकोर्ट में की गई अपील में अदालत ने खोये हुए अनुदान के सिद्धांत को लागू किया और कहा कि मंदिर ने इस बारे में पर्याप्त सबूत दिए हैं कि अलगर पहाड़ी का सम्पूर्ण जंगल उसका है और इसलिए उनसे आदेश दिया कि इस जंगल का मालिकाना हक़ मंदिर को सौंप दिया जाए।
राज्य ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की और कहा कि मंदिर लगातार किसी के कब्जे में नहीं रहा और इस पर कब्जे की बात का कोई सबूत नहीं है कि इस आधार पर कोई निष्कर्ष निकाला जाए, इसलिए चुके हुए अनुदान का अनुमान यहां लागू नहीं हो सकता और हाईकोर्ट ने जो निष्कर्ष निकाला है कि अलगर पहाड़ी का सारा जंगल मंदिर का है इस बारे में पर्याप्त सबूत है, यह गलत है।
पीठ ने श्री मनोहर दास मोहंता बनाम चारू चन्द्र पाल के मामले में कहा,
"परिस्थिति और स्थिति जिसके तहत चुके हुए अनुदान का अनुमान लगाया जा सकता है, पूरी तरह स्थापित हैं। जब कोई व्यक्ति के पास कोई जमीन होती है और वह काफी दिनों तक उस पर मालिकाना हक़ के तहत उसका लाभ उठाता है और उसको कोई चुनौती नहीं दी जाती है तो उस स्थिति में इंग्लैंड की अदालत इस तरह के कब्जे को कानूनी मानता है और जब तथ्यों के आधार पर कब्जा की बात नहीं टिकती तो उस स्थिति में इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि कब्जे का संबंध किसी ऐसे मालिक से मिले अनुदान से है जो जमीन का मालिक है पर इस तरह के अनुदान की अवधि समाप्त हो चुकी है।"
यह अनुमान प्राचीन और सतत मालिकाना हक प्राप्त करने के लिए था जो किसी अन्य तरह से नहीं दिया जा सकता है, लेकिन यह अनुमान सही नहीं था और अदालत इसके अनुमोदन के लिए बाध्य नहीं था अगर सबूत इनके खिलाफ थे।
"यह किसी जज का काम नहीं है कि वह एक ऐसे अनुदान का अनुमान लगाए जिसका अस्तित्व ही नहीं है और जिसके बारे में वह आश्वस्त है," ऐसा फारवेल जे. ने अटॉर्नी जनरल बनाम सिम्पसन [(1910) 2 Ch D 671, 698] मामले में कहा, इसलिए यह अनुमान भी नहीं लगाया गया था कि इसे बनाने में कोई कानूनी बाधा नहीं है।
इस तरह यह कहा गया कि अगर कोई इस तरह का सक्षम व्यक्ति नहीं था जिसे यह अनुदान दिया जाता तो इसका मतलब यह हुआ कि यह अनुदान नहीं दिया जा सकता और जहां अधिकार का दावा ऐसे किसी एकक द्वारा किया जाता है जिसका उतार-चढ़ाव होता है।
राजा ब्रज सुन्दर देब बनाम मोनी बेहरा [1951 SCR 431, 446] मामले में यह मत व्यक्त किया गया। इसी तरह इस मामले में भी अनुमान का कोई स्थान नहीं हो सकता अगर ऐसा कोई योग्य व्यक्ति नहीं है जो अनुदान दे सके (हल्स्बरीज लॉज़ ऑफ़ इंग्लैंड, वोल्युम IV, पृष्ठ 574 , पैरा 1074); या अनुदान गैरकानूनी होता और यह अनुदान देने वाले के अधिकार के बाहर होता।
हालांकि, पीठ वन विभाग के इस प्रस्ताव बात से सहमत था और उसे निर्देश दिया कि वह पहाड़ी के नीचे से मंदिर स्थल और उसके हर स्थान तक जाने के लिए 50 फुट चौड़े रास्ते की अनुमति दे। 18.3032 हेक्टेयर एकड़ वन भूमि के तहत गैर-वन गतिविधियों का आदेश मंदिर प्रशासन सहित कोई भी दे सकता है। यह क्षेत्र श्रद्धालुओं को पहाड़ी के निचले हिस्से से मंदिर और आसपास के क्षेत्र में आने-जाने में सुविधा हो इसके लिए दिया गया है।
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