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कर्मचारी नोटिस अवधि में काम करने को सहमत था, नियोक्ता ने तीन महीने की सैलरी जमा करने को कहा, दिल्ली हाईकोर्ट से मिली राहत

LiveLaw News Network
14 Oct 2019 5:18 AM GMT
कर्मचारी नोटिस अवधि में काम करने को सहमत था, नियोक्ता ने तीन महीने की सैलरी जमा करने को कहा, दिल्ली हाईकोर्ट से मिली राहत
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दिल्ली हाईकोर्ट ने एक फर्टिलाइज़र पीएसयू के उस कर्मचारी को राहत दी है जिसे नियोक्ता ने नोटिस की अवधि पूरी करने के बदले तीन महीने का वेतन जमा करने को कहा था।

वर्तमान रिट याचिका में, याचिकाकर्ता ने फर्टिलाइजर्स एंड केमिकल ट्रावनकोर लिमिटेड (एफसीटीएल) के एक कम्यूनिकेशन को चुनौती दी थी, जिसमें कहा गया था कि उसके द्वारा दिए गए इस्तीफे को स्वीकार कर लिया गया है, इसलिए उसे कंपनी के नियम 36ए के तहत नोटिस अवधि पूरी न करने की दशा में तीन महीने का वेतन जमा कराना होगा।

यह है मामला

मामले की तथ्यात्मक पृष्ठभूमि के अनुसार, याचिकाकर्ता को सीओओ के रूप में नियुक्त किया गया था और उन्हें नई दिल्ली कार्यालय में सेवा देने के लिए कहा गया था। हालांकि, उनकी सेवा के कुछ महीनों के भीतर, उन्हें कोच्चि स्थित मुख्यालय में स्थानांतरित कर दिया गया था। चूंकि, नौकरी के प्रस्ताव में उक्त स्थानांतरण के बारे में नहीं बताया गया था, इसलिए याचिकाकर्ता ने अपनी बेटी की बोर्ड परीक्षाओं और स्वयं के खराब स्वास्थ्य के कारण अपने स्थानांतरण के लिए कई बार स्थगन की मांग की। कंपनी ने उनके इन स्थगन की मांग को स्वीकृति देना भी जारी रखा।

हालांकि, 29.03.2017 को याचिकाकर्ता ने कंपनी को एक कम्यूनिकेशन (ई-मेल) भेजा, जिसमें कहा गया कि उसे उसकी सेवाओं से मुक्त कर दिया जाए। इसके बाद 31.03.2019 को कंपनी ने सूचित किया कि उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया है और ऐसा करने के लिए, वह कंपनी के नियमों के अनुसार नोटिस अवधि के बदले तीन महीने का वेतन जमा करवाने के लिए उत्तरदायी है।

याचिकाकर्ता ने तुरंत ई-मेल के माध्यम से इसका जवाब दिया और प्रतिवादियों को अवगत कराया कि वह नोटिस की अवधि के बदले में तीन महीने के वेतन का भुगतान करने की स्थिति में नहीं है और उन्होंने कहा कि नोटिस अवधि को उसके विशेषाधिकार प्राप्त अवकाश (पीएल) के बदले समायोजित कर लिया जाए और बाकी बची अवधि के लिए उसे छूट दे दी जाए।

याचिकाकर्ता ने वैकल्पिक रूप से यह भी अनुरोध किया कि उसे नोटिस की अवधि पूरी करने की अनुमति दी जाए। हालांकि कंपनी द्वारा इसे स्वीकार नहीं किया गया।

अदालत का नज़रिया

अदालत ने नौकरी विज्ञापन, नियुक्ति प्रस्ताव और नौकरी की सामग्री या तथ्यों को देखने के बाद कहा कि याचिकाकर्ता को दिल्ली कार्यालय में सेवा देने के लिए काम पर रखा गया था, इसलिए कोर्ट ने माना कि याचिकाकर्ता को कोच्चि में स्थित मुख्यालय में जाने के लिए कहना, उसकी नियुक्ति के नियमों और शर्तों के अनुरूप नहीं माना जा सकता।

अदालत ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ता द्वारा उसको सेवाओं से मुक्त करने के लिए भेजा गया कम्यूनिकेशन भी स्वैच्छिक नहीं था, क्योंकि वह उन परिस्थितियों में मजबूर था जिसमें इस तरह का निर्णय लिया गया था। याचिकाकर्ता ने अपनी पिछली नौकरी को इस आधार पर छोड़ दिया था ताकि वह दिल्ली में काम कर सके, इसलिए ट्रांसफर के बाद उसके लगातार एक्सटेंशन की मांग इस बात का संकेत थी कि वह कोच्चि में स्थानांतरित नहीं होना चाहता था।

इसके बाद न्यायमूर्ति एके चावला ने 27.03.2017 को याचिकाकर्ता द्वारा भेजे गए कम्यूनिकेशन (मेल) पर भी विचार किया, जिसके बाद यह देखा गया कि कम्यूनिकेशन में कहीं भी इस्तीफे के पीछे किसी खास इरादे या कोई विशिष्ट तारीख का उल्लेख नहीं किया था जिस तारीख से यह इस्तीफा प्रभावी होगा।

अदालत ने कहा कि-

'अपने आप में उक्त संचार का स्वर और अभिप्राय इस तथ्य का सूचक है कि उसकी ऐसा कदम किसी बाहरी दबाव से मुक्त नहीं था, बल्कि मौजूदा तथ्यों और परिस्थितियों के लिए, संकट से निपटने के लिए ऐसा किया गया था।'

अदालत ने यह भी कहा कि नोटिस देने के मामले में नियम 36 के तहत एकतरफा तीन महीने का वेतन देने का दायित्व थोपा गया है। इसके अलावा, वर्तमान मामले में, न तो इस्तीफे की तारीख स्पष्ट थी, बल्कि याचिकाकर्ता नोटिस की अवधि में सेवा देने के लिए भी सहमत था, इसलिए, कंपनी ने गलत तरीके से याचिकाकर्ता के खिलाफ उक्त नियम लागू किया।

इसलिए अदालत ने परमादेश का इस्तेमाल किया और कंपनी को निर्देश दिया कि नोटिस की अवधि के एवज में तीन महीने का वेतन देने दबाव बनाए बिना याचिकाकर्ता की बकाया राशि जारी कर दे। याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व एडवोकेट एस.एन कौल और विनोद जुत्शी ने किया।


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