ऐसे साक्ष्य जो न तो जांच अधिकारी ने एकत्रित किए और न ही केस डायरी का हिस्सा थे, वह संज्ञान लेने के लिए आधार नहीं बन सकते : इलाहाबाद हाईकोर्ट

LiveLaw News Network

30 Nov 2019 3:21 PM GMT

  • ऐसे साक्ष्य जो न तो जांच अधिकारी ने एकत्रित किए और न ही  केस डायरी का हिस्सा थे, वह संज्ञान लेने के लिए आधार नहीं बन सकते :  इलाहाबाद हाईकोर्ट

    न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित समन के आदेश को खारिज करते हुए, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया है कि जो सामग्री या तथ्य केस डायरी का हिस्सा नहीं थे, उन पर संज्ञान लेने के लिए विचार नहीं किया जा सकता।

    जस्टिस ओम प्रकाश ( VII) ने कहा,

    " संबंधित मजिस्ट्रेट एक आपराधिक मामले में अंतिम रिपोर्ट पर विचार करते समय, सीआरपीसी के अध्याय XV में निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना प्रोटेस्ट याचिका के आधार पर सीधा संज्ञान लेते हुए बाहरी सामग्री पर विचार करने के लिए अधिकृत नहीं है। कोर्ट ने कहा कि जो सबूत केस डायरी का हिस्सा न हो और न ही जिनको जांच अधिकारी द्वारा एकत्र किया गया हो, वे संज्ञान लेने का आधार नहीं बन सकते।''

    आवेदक एनके जानू पर आरोप है कि उसने भुगतान प्राप्त करने के लिए पिंडी पौधों की आपूर्ति के जाली दस्तावेज तैयार किए थे।

    आवेदक ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, आगरा के आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी। यह आदेश बाहरी सामग्री के आधार पर दिया गया था। आवेदक की तरफ से वकील सुरेश सी.द्विवेदी, एम.सी चतुर्वेदी और विमलेन्दु त्रिपाठी के दलील दी कि-

    1. जांच के बाद, जांच अधिकारी ने एक क्लोजर रिपोर्ट दायर की थी। हालांकि, शिकायतकर्ता/ विपक्षी पार्टी द्वारा दायर प्रोटेस्ट याचिका के साथ दायर किए गए बाहरी तथ्यों और सबूतों के आधार पर, मजिस्ट्रेट ने अंतिम रिपोर्ट को खारिज कर दिया और सीधा मामले में संज्ञान ले लिया। इस प्रकार यह आदेश उन सबूतों के मद्देनजर पारित किया गया था जो न तो केस डायरी का हिस्सा नहीं थे और न ही जांच के दौरान जांच अधिकारी द्वारा एकत्र किए गए थे।

    2. यहां तक कि अगर आवेदक के खिलाफ कोई मामला बनता भी था, तब भी उसके द्वारा किए गए कार्य उसकी आधिकारिक ड्यूटी का हिस्सा थे या उसके दौरान किए गए थे। इसलिए अभियोजन पर सीआरपीसी की धारा 197 के तहत रोक है क्योंकि जांच अधिकारी ने सक्षम प्राधिकारी की पूर्व मंजूरी नहीं ली थी।

    3. उक्त आरोपों के लिए विभागीय जांच पहले ही समाप्त कर दी गई थी, जिसमें उसे दोषमुक्त पाया गया था। आवेदक द्वारा उठाए गए बाद के दो तर्कों को न्यायालय ने महत्व नहीं दिया।

    न्यायालय ने कहा कि, ''कानून की स्थिति साफ है कि अनुशासनात्मक कार्यवाही में किसी को दी गई छूट या दोषमुक्त करना,आपराधिक कार्यवाही को समाप्त करने का कोई आधार नहीं है।

    वहीं आरोपित के खिलाफ आपराधिक अभियोजन के लिए जो कथित आरोप लगाए गए हैं,अगर वह कार्य आधिकारिक कर्तव्य या ड्यूटी के निर्वहन के दायरे में नहीं आते है तो अभियोजन के लिए सक्षम प्राधिकारी की पूर्व स्वीकृति प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है।''

    हालांकि, अदालत ने पहले तर्क के साथ सहमति जताई कि मजिस्ट्रेट को उस विवादास्पद सामग्री पर भरोसा नहीं करना चाहिए था जो जांच का हिस्सा नहीं थी।

    अदालत ने कहा कि-

    ''यह स्पष्ट है कि जो साक्ष्य केस डायरी का हिस्सा नहीं थे, संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा उक्त आदेश पारित करते समय उन पर विचार किया गया था। इस आदेश के तहत अंतिम रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया गया था और सीआरपीसी के अध्याय XV के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना ही विरोध पक्ष की याचिका पर सीधे मामले में संज्ञान लिया गया था।''

    यह कहते हुए कि इस मामले में संज्ञान लेने का कोई मतलब नहीं था, अदालत ने कहा कि,''चूंकि वर्तमान मामले में न तो संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय XV के तहत कोई जांच की गई है और न ही जिन दस्तावेजों/तथ्यों/सबूतों पर संबंधित मजिस्ट्रेट द्वारा भरोसा किया गया वह केस डायरी का हिस्सा थे।

    इसलिए प्रोटेस्ट याचिका के आधार पर आवेदक के खिलाफ 20 जुलाई 2016 को पारित किया गया आदेश, जिसके तहत आवेदक को केस का सामना करने के लिए समन जारी किया गया था, वह इस अदालत की नजर में कानून के खिलाफ है और वह अनुरक्षणीय नहीं है। अंतिम रिपोर्ट को सीधेतौर पर खारिज करते हुए संज्ञान लेने का कोई मामला नहीं था।''

    इसलिए, यह माना गया है कि विरोधाभास याचिका के आधार पर सीधे संज्ञान लेते हुए दिया गया आदेश रद्द होने योग्य है। राज्य सरकार का प्रतिनिधित्व एडवोकेट ऋषभ अग्रवाल ने किया।

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