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NCLAT के तकनीकी पद के लिए 25 साल के कानूनी अनुभव की अनिवार्यता की वैधता को चुनौती, दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका

LiveLaw News Network
3 Dec 2019 2:25 PM GMT
NCLAT के तकनीकी पद के लिए 25 साल के कानूनी अनुभव की अनिवार्यता की वैधता को चुनौती, दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका
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दिल्ली हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है, जिसमें राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण के तकनीकी सदस्य के पद के लिए किसी व्यक्ति के नाम पर विचार करने के लिए उस व्यक्ति को कानून में 25 वर्ष के अनुभव की अनिवार्यता की वैधता को चुनौती दी गई है।

अवेक फॉर ट्रांसपेरेंसी द्वारा दायर की गई याचिका में यह भी कहा गया है कि उक्त अधिसूचना के अनुपालन में की गई हर कार्रवाई की घोषणा करने के लिए एक आदेश दिया गया है और नियुक्तियों को गैरकानूनी और शून्य बताया गया है।

याचिका में उल्लेख किया गया है कि ऐसे न्यायाधिकरणों में तकनीकी सदस्य होने के पीछे का विचार यह सुनिश्चित करना था कि न्यायिक अधिकारियों को विशेष विधानों के जटिल विषय के लिए आवश्यक तकनीकी सहायता प्राप्त हो।

इसके अलावा मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार, शीर्ष अदालत ने कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 411 (3) को रद्द कर दिया था, जिसमें 25 वर्षों के अनुभव की आवश्यकता को अनिवार्य किया गया था।

हालांकि 2017 के वित्त अधिनियम ने ट्रिब्यूनल से संबंधित कानून में संशोधन किया और अनुसूची 8 (ट्रिब्यूनल नियम) के प्रवेश सी की उप-प्रविष्टि 3 में धारा 411 (3) को पुनर्जीवित हुआ जो पहले शीर्ष अदालत द्वारा रद्द किया गया था।

यह आगे प्रस्तुत किया गया है कि जबकि 2018 में कानून को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुरूप बनाने के लिए संशोधित किया गया था तो 2017 के ट्रिब्यूनल नियमों के पालन में की गई अधिसूचना में संशोधन नहीं किया गया था और कुछ व्यक्तियों को इस तरह के नियमों में आवश्यकताओं के अनुरूप नियुक्त किया गया था।

इसके अतिरिक्त एक और अधिसूचना 10.05.2019 को जारी की गई थी, जो NCLAT के तकनीकी सदस्यों के पद पर नियुक्ति के लिए आवेदन के लिए, ट्रिब्यूनल नियमों के अनुसार थी, न कि अधिनियम की संशोधित धारा 411 (3) के अनुसार नहीं। इसलिए, संशोधित अनुभाग के तहत निर्धारित पात्रता के परीक्षा के अनुसार तकनीकी सदस्यों के पद पर की गई तीन नियुक्तियों में से दो शून्य हैं।

इसलिए, यह तर्क दिया गया है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बावजूद ऐसी नियुक्तियों का जारी रहना, कानून के शासन की सर्वोच्चता के बारे में गंभीर सवाल उठाएगा।

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