[COVID-19] सुप्रीम कोर्ट में जमाखोरी, मुनाफाखोरी, मिलावट, कालाबाजारी के लिए क्रमागत सजा, एनएसए लगाने, बेनामी संपत्तियों की जब्ती की मांग वाली याचिका दायर

LiveLaw News Network

28 May 2021 12:33 PM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट, दिल्ली

    सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट में दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 31 को जमाखोरी, मुनाफाखोरी, मिलावट और कालाबाजारी से संबंधित कानूनों पर लागू नहीं करने के लिए निर्देश देने की मांग वाली जनहित याचिका दायर की गई है। इसके साथ ही याचिका में क्रमागत सजा, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) लगाने और बेनामी संपत्तियों की जब्ती की मांग की गई है।

    याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट में वकील अश्विनी उपाध्याय ने केंद्र और राज्यों को जमाखोरी, मुनाफाखोरी, मिलावट और कालाबाजारी में शामिल व्यक्ति के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए) करने और उनकी 100% बेनामी संपत्तियों और आय से अधिक संपत्ति को जब्त करने का निर्देश देने की भी प्रार्थना की।

    याचिका में इसके अलावा जमाखोरी, मुनाफाखोरी, मिलावट और कालाबाजारी से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की जांच करने और आईपीसी में इन अपराधों के लिए एक अध्याय सम्मिलित करने के लिए उचित कदम उठाने के लिए केंद्र को निर्देश देने की मांग की गई है।

    कोर्ट से याचिकाकर्ता ने प्रार्थना की है कि न्यायालय भारत के विधि आयोग को जमाखोरी, मिलावट, मुनाफाखोरी और कालाबाजारी से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की जांच करने और तीन महीने के भीतर एक रिपोर्ट तैयार करने का निर्देश दें।

    याचिकाकर्ता को प्रमुख हिंदी-अंग्रेजी समाचार पत्र के माध्यम से पता चला कि कई ईडब्ल्यूएस और बीपीएल नागरिकों की अस्पताल के बाहर मौत हो गई जबकि अस्पताल में बेड उपलब्ध थे। यह संकट के इस समय के दौरान अपने दायित्व के निर्वाहन में पूरी तरह से विफल रहा है।

    याचिका में कहा गया है कि,

    "अस्पताल के बेड की जमाखोरी, मिलावटी COVID-19 दवाओं, चिकित्सा की कालाबाजारी के कारण हजारों ईडब्ल्यूएस और बीपीएल नागरिकों की सड़कों पर, वाहनों में, अस्पतालों के परिसर में और उनके घरों में मौत हो गई। ऑक्सीजन सिलेंडर जैसे उपकरण और रेमडेसिविर, टोसिलिजुमैब आदि जीवन रक्षक इंजेक्शन की बिक्री में बड़े स्तर पर मुनाफाखोरी की जा रही है।"

    याचिका में कहा गया है कि आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत निर्धारित जुर्माने की मात्रा किसी भी निवारक प्रभाव के लिए बहुत कम है और जमाखोरी और कालाबाजारी के लिए सजा भी इन खतरों से निपटने के लिए न तो कठोर है और न ही पर्याप्त है।

    याचिका में आगे कहा गया है कि ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट के तहत, नकली दवाओं की बिक्री से मौत या गंभीर चोट लगने पर दस साल की सजा का प्रावधान है, इसके अलावा ₹10 लाख या जब्त की गई दवाओं के मूल्य का तीन गुना जुर्माना लगाए जाने का प्रावधान है।

    याचिकाकर्ता का कहना है कि पीड़ितों को प्रतिपूर्ति और मुआवजे के भुगतान के लिए सजा और जुर्माने का प्रावधान और अधिक कठोर होना चाहिए। यदि किसी की मौत और जमाखोरी, मुनाफाखोरी, मिलावट और कालाबाजारी के बीच सीधा संबंध है, तो वित्तीय दंड में पीड़ित के परिवार को मुआवजा शामिल होना चाहिए।

    याचिकाकर्ता का कहना है कि जमाखोरी में मिलावटखोरी और कालाबाजारी नकद के जरिए की जाती है। इसलिए संबंधित एजेंसियों को काले धन, बेनामी संपत्ति और आय से अधिक संपत्ति की जांच करनी चाहिए। आवश्यक वस्तु अधिनियम 1995 कुछ वस्तुओं के उत्पादन, आपूर्ति और वितरण के नियंत्रण के लिए है। अधिनियम विशेष रूप से ब्लैक मार्केटिंग शब्द से संबंधित नहीं है, लेकिन धारा 7 धारा 3 के तहत जारी सरकारी अधिसूचना के उल्लंघन के लिए दंड निर्धारित करती है। याचिका में कहा गया है कि अधिनियम की अनुसूची में दवाओं को आवश्यक वस्तुओं में शामिल किया गया है, और चिकित्सा उपकरणों को शामिल करने के लिए दवा और कॉस्मेटिक अधिनियम की धारा 3 में दवा की परिभाषा है।

    याचिका में कहा गया है कि,

    "अधिनियम को दवाओं के आयात निर्माण और वितरण को विनियमित करने के लिए अधिनियमित किया गया है, लेकिन जमाखोरी, मुनाफाखोरी, मिलावट, कालाबाजारी पर अंकुश लगाने के लिए तंत्र पर्याप्त और सक्षम नहीं है। इसकी वजह से हजारों नागरिक संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों से वंचित हो गए हैं।"

    याचिकाकर्ता ने आग्रह किया कि संथानम समिति ने सामाजिक-आर्थिक अपराधों को 8 श्रेणियों में वर्गीकृत किया और 5 वीं और 6 वीं में जमाखोरी, मुनाफाखोरी, मिलावट, भोजन और दवाओं की कालाबाजारी से संबंधित है। समिति ने सिफारिश की कि सामाजिक-आर्थिक अपराधों से निपटने के लिए भारतीय दंड संहिता में एक नया अध्याय जोड़ा जाना चाहिए। लेकिन सुझाव व्यर्थ हो गया और बहरे कानों को सुनाई नहीं दिया।

    याचिकाकर्ता ने आगे कहा कि विधि आयोग ने अपनी 29वीं और 47वीं रिपोर्ट में आईपीसी में संशोधन का सुझाव दिया और सामाजिक-आर्थिक अपराधों को शामिल करने की सिफारिश की, लेकिन यह भी यह व्यर्थ हो गया और अपेक्षित परिवर्तन और विकास नहीं हुआ।

    याचिका में कहा गया है कि,

    "भारतीय दंड संहिता 1860 में अधिनियमित की गई और इसके अधिकांश प्रावधान आज भी उतने ही सरल हैं जितने वे एक सदी पहले थे, जब उन्हें 1860 में तैयार किया गया था, लेकिन भारत का आर्थिक पहलू पिछले 70 वर्षों में इतना तेजी से बदला है कि इसलिए आईपीसी के प्रावधानों में भी बदलाव की जरूरत है। भारतीय दंड संहिता में सभी प्रमुख प्रकार के अपराध शामिल हैं जैसे राज्य के खिलाफ अपराध, मानव शरीर के खिलाफ अपराध, संपत्ति के खिलाफ अपराध। हालांकि यह सामाजिक-आर्थिक अपराधों यानी जमाखोरी में मिलावट और कालाबाजारी से संबंधित नहीं है। इसलिए संथानम समिति और विधि आयोग के सुझाव के अनुसार आईपीसी में आवश्यक संशोधन करने का समय आ गया है।"

    याचिका में कहा गया है कि अप्रभावी, पुराने और अस्पष्ट कानूनों के कारण महामारी के दौरान सरकार अस्पतालों में बेड की जमाखोरी, नकली दवाओं का उत्पादन, मुनाफाखोरी, मिलावट और कालाबाजारी को नियंत्रित करने में पूरी तरह विफल है। जिला प्रशासन नकली सैनिटाइज़र, मास्क, थर्मामीटर, ऑक्सीमीटर, नेबुलाइज़र आदि के निर्माण और बिक्री को नियंत्रित करने में भी विफल है। हालांकि जमाखोरी, मुनाफाखोरी, मिलावट और कालाबाजारी के लिए लगभग 300 प्राथमिकी दर्ज की गई हैं, लेकिन न तो एनएसए लागू किया गया है न ही उनकी संपत्ति जब्त की गई है।

    याचिकाकर्ता ने सुझाव दिया है कि साल 1897 में अंग्रेजों ने महामारी रोग अधिनियम अधिनियमित किया। इसके तहत सरकार को किसी भी बीमारी के प्रकोप या प्रसार को रोकने वाले किसी भी उपाय को लागू करने का अधिकार दिया गया। कानून के अनुसार किसी भी लोक सेवक के आदेशों की अवहेलना करने वाले को आईपीसी की धारा 188 के तहत दंडित किया जा सकता है जो आज के परिदृश्य में पर्याप्त नहीं है। चूंकि ऐसे समय में आम आदमी का शोषण के मामले को सख्ती से निपटा जाना चाहिए और जनता से अधिक शुल्क लेने को गंभीर अपराध बनाने के लिए आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 में एक प्रावधान शामिल किया जाना चाहिए। अस्पतालों, कब्रिस्तानों में मृतकों को दफनाने से इनकार करने आदि को दंडनीय अपराध बनाने की आवश्यकता है।

    याचिका में कहा गया है कि,

    "भारत में COVID-19 के तेजी से बढ़ते मामलों के कारण देश भर के अस्पतालों में ऑक्सीजन की आपूर्ति की मांग बढ़ गई है। कई अस्पतालों ने मेडिकल ऑक्सीजन की भारी कमी की सूचना दी है। COVID-19 रोगियों के इलाज के लिए ऑक्सीजन की आपूर्ति जरूरी है। जैसे-जैसे मांग बढ़ी, मेडिकल ऑक्सीजन का काला बाजार तेजी से बढ़ा। जिससे भारत को ऑक्सीजन की आपूर्ति की कमी का सामना करना पड़ रहा है। मुनाफाखोरी करने वाले लोग इस सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट के समय अत्यधिक मुनाफा कमाने में लगे हैं। कहीं-कहीं तो अंकित मूल्य से सौ गुना भी अधिक कीमत वसूले जा रहे हैं। एक न्यूज चैनल ने दिल्ली में जांच की और पाया कि एक ऑक्सीजन विक्रेता गैस सिलेंडर को 50 गुना अधिक कीमत पर बेच रहा था। इसलिए केंद्र को मुनाफाखोरी के खिलाफ कड़े प्रावधान करने चाहिए।"

    याचिका में कहा गया है कि ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट (डीसीए) में गलत ब्रांडेड, मिलावटी, नकली दवाओं की विभिन्न श्रेणियां हैं। लेकिन अधिनियम सख्त नहीं है। माशेलकर समिति ने साल 2003 में कहा था कि ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट पिछले 56 वर्षों से लागू है। कई राज्यों में सही से क्रियान्वित नहीं किया जा रहा है। कानूनों के प्रावधानों की व्याख्या और उनके कार्यान्वयन में गैर-एकरूपता और नियामक अधिकारियों की क्षमता के अलग-अलग स्तर के कारण संतोषजनक प्रदर्शन नहीं हो पाया है। देश में नियामक प्रणाली में समस्याएं मुख्य रूप से राज्य और केंद्र स्तर पर अपर्याप्त या कमजोर दवा नियंत्रण बुनियादी ढांचे के कारण है। समिति ने निराशा के साथ कहा था कि नकली दवाओं से संबंधित अपराधों से संबंधित अधिकांश अभियोजन मामले वर्षों तक लंबित रहते हैं। उचित और दंड के प्रावधान लागू करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है।

    याचिकाकर्ता का कहना है कि जमाखोरी, मुनाफाखोरी, मिलावट कालाबाजारी के अपराध गैर-जमानती होने चाहिए और भारी जुर्माने के साथ अशमनीय अपराध (Non Compoundable Offences) होने चाहिए। इसके अतिरिक्त विशेष रूप से नामित फास्ट कोर्ट और नियामक आधारभूत संरचना होनी चाहिए। व्हिसल ब्लोअर योजना होनी चाहिए। फार्मास्युटिकल उत्पादों का उत्पादन गराज की तरह नहीं किया जाना चाहिए। अच्छी विनिर्माण प्रक्रिया के तहत दवाओं का उत्पादन किया जाना चाहिए।

    याचिका में कहा गया है कि अगर सरकारें L1 के आधार पर दवा उत्पाद खरीदती हैं, तो यह समझ में आता है कि उपभोक्ताओं को मूल्य-संवेदनशील होना चाहिए, भले ही दवा नकली हो, घटिया हो या दवा के उपयोग की तारीख समाप्त हो गई हो। दवा विक्रेताओं प्रिस्क्रिप्शन के बिना दवाओं को बेचते हैं और डॉक्टरों के साथ गठजोड़ करके रखते हैं?

    याचिका में आगे कहा गया है कि नकली RT-PCR टेस्ट के प्रति आक्रोश जरूरी है और इसके साथ नकली टेस्ट पर नकेल कसना जरूरी है। बिना लाइसेंस के दवा बेचना अपराध है लेकिन ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट के तहत अभियोजन और अपराधों की सजा के कठोर प्रावधान नहीं हैं। अदालतों ने फैसला में कहा है कि पुलिस अधिकारी इस कानून के तहत एफआईआर दर्ज नहीं कर सकते हैं, गिरफ्तारी नहीं कर सकते हैं, मुकदमा नहीं चला सकते हैं। ड्रग इंस्पेक्टर का यही काम है। काला बाजारी की धारणा अलग है, हालांकि दोनों संबंधित हैं। यह एक छाया बाजार हो सकता है जहां टैक्स से बचा जाता है। लेकिन इसका मतलब है कि कमी होने पर प्रीमियम चार्ज करना। जब किसी दवाओं की कमी होती है तो उसकी कीमतें बढ़ जाती हैं। एम्बुलेंस भी अत्यधिक कीमत वसूल रहे हैं।

    याचिका में कहा गया है कि काला बाजारी तब होता है जब कोई उत्पाद जिस कीमत पर बेचा जाता है वह निर्धारित मूल्य से अधिक होता है। हमारे देश में रेमडेसिविर की प्रत्येक डोज 70,000 रुपये में बेचे गए हैं। यह निर्धारित कीमत से बहुत अधिक है। याचिकाकर्ता का कहना है कि सही समय पर उचित कार्रवाई नहीं करने पर यह हमें सबसे बुरे समय की ओर ले जाएगा।

    याचिका में तर्क दिया गया है कि भारत का स्वास्थ्य बजट 67,484 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 73,931.77 करोड़ रुपये कर दिया गया फिर भी मौतों की कुल संख्या 3,00,000 को पार कर गई। सरकार ने COVID-19 महामारी से निपटने के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध कराया है, फिर भी हम विफल रहे। इसके पीछे का कारण स्वास्थ्य संबंधी आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी, मुनाफाखोरी, मिलावट और कालाबाजारी है। बढ़ा हुआ बजट सिर्फ बिचौलियों की जेब भरता है, जरूरतमंदों की नहीं। अगर सरकार चाहती है जो धन लोगों की स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए उपलब्ध कराया गया है वह सुविधा लोगों तक पहुंचे तो इसके लिए सरकार को जमाखोरी, मुनाफाखोरी, मिलावट और कालाबाजारी के खिलाफ कड़े कानून बनाने चाहिए।

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