बॉम्बे हाईकोर्ट ने आरोपी की मौत की सजा को पलट दिया कहा, अस्पष्ट मामले में आरोपी को फ़ायदा देते हुए 'नाबालिग' घोषित करना चाहिए
LiveLaw News Network
25 Oct 2019 11:16 AM IST
बॉम्बे हाईकोर्ट ने संदीप सिरसत नामक युवक की आपराधिक अपील को स्वीकार कर लिया। संदीप पर बलात्कार और हत्या का आरोप है। उसे अपराध होने के समय नाबालिग करार दिया गया था। इस वजह से सिरसत को मौत की सजा नहीं दी जाएगी, जबकि ट्रायल कोर्ट ने उसे यह सजा सुनाई थी।
न्यायमूर्ति बीपी धर्माधिकारी और एसके शिंदे की खंडपीठ ने अपीलकर्ता के खिलाफ 11 मई 2017 को ट्रायल कोर्ट के फैसले को .खारिज कर दिया।
क्या है मामला
अपीलकर्ता ने दावा किया कि जिस दिन अपराध हुआ उस दिन (9 मई 2012) वह 16 साल 9 महीने का था और इस तरह से वह नाबालिग था। ठाणे के अतिरिक्त सत्र जज ने उन्हें आईपीसी की धारा 302, 376(2)(g), 326 के तहत दोषी करार दिया था।
धारा 302 के तहत आरोपी को मौत की सजा दी गई जबकि धारा 376(2)(g) के तहत हुए अपराध के लिए उसे 10 साल की सजा दी गई जबकि 326F के लिए भी उसे 10 साल की कैद की सजा दी गई।
दलील
एपीपी अरुणा पाई ने राज्य की पैरवी की जबकि रागिनी आहूजा ने अपीलकर्ता की पैरवी की। अपीलकर्ता की वकील रागिनी ने अश्वनी कुमार सक्सेना बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट का हवाला दिया और कहा कि निचली अदालत आरोपी की जन्म तिथि को लेकर किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंची है यानी वह यह निर्धारित नहीं कर पाई है कि जिस दिन अपराध हुआ उस दिन वह नाबालिग था या नहीं।
स्कूल के रिकॉर्ड में उसका जो जन्मतिथि है उसमें किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं हुई है और 29/08/1995 को ही उसका जन्मतिथि माना जाना चाहिए। उन्होंने नवी मुंबई के निगम अस्पताल के रेडियोलोजिस्ट की रिपोर्ट फोरेंसिक मेडिसिन और टोक्सिकोलोजी के सहायक प्रोफ़ेसर की इस बारे में रिपोर्ट को भी खारिज कर दिया।
एपीपी पाई ने ओमप्रकाश बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया। इस मामले में आरोपी ने अपने उम्र के बारे में झूठ कहा था और अपने नाम और सर्टिफिकेट में अपने नाम में अंतर का लाभ उठाने की कोशिश की। पाई ने पीठ को कहा कि इस तरह की स्थिति में जब कोई चारा नहीं रह जाता है तो देर से ही सही, नाबालिग के बचाव को सुना जाता है।
इस तरह के बचाव पर गौर नहीं करना चाहिए. 2012 में सुनवाई शुरू होने के पहले ही आयु का निर्धारण कर लिया गया था और अपीलकर्ता ने इसका विरोध नहीं किया था।
ओसिफिकेशन की रिपोर्ट पर विश्वास करते हुए उन्होंने कहा कि अपराध जिस दिन हुआ उस दिन वह वह 18 साल का था।
फैसला
अश्वनी कुमार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आयु के निर्धारण में निचली अदालत और अपीली अदालत के रवैये की आलोचना की। इस मामले में आये फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा – "इस फैसले में जुवेनाइल जस्टिस एक्ट की धारा 7A और 2007 के नियम के नियम नंबर 12 पर उचित तरीके से गौर नहीं किया गया।"
इस फैसले में शीर्ष अदालत ने कहा था कि सबसे पहले मैट्रिक या समकक्ष सर्टिफिकेट पर उम्र के मामले में गौर करना चाहिए। अगर यह उपलब्ध नहीं है तो अदालत को उस स्कूल से सर्टिफिकेट प्राप्त करना चाहिए जहां वह पहली बार गया था। स्कूल के रिकॉर्ड के अभाव में ही निगम या नगरपालिका से जन्म प्रमाणपत्र प्राप्त किया जाना चाहिए। अगर ये दस्तावेज प्राप्त नहीं होते हैं तभी जाकर मेडिकल तरीके से इस बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
अदालत ने अपील स्वीकार करते हुए कहा,
"अगर दोनों पक्ष में गलती की आशंका को हम ध्यान में रखें तो मेडिकल रिपोर्टों में आरोपी नंबर दो की आयु उस दिन 18 साल से अधिक होती है। यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि 29/08/1995 आरोपी नंबर 2 की जन्म तिथि नहीं है। इस स्थिति में स्कूल रिकॉर्ड में दर्ज 29/08/1995 को उसका जन्म तिथि माना जाना चाहिए। इस तरह इसके अनुरूप हम आरोपी नंबर 2 को नाबालिग मानते हैं।"
अदालत ने राज्य को निर्देश दिया कि वह आरोपी को आगे की कार्यवाही के लिए जुवेनाइल अदालत में पेश करे।
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