क़रार अधिनियम – सिर्फ इसलिए कि परिवार के लोग परिवार के वरिष्ठ व्यक्ति का ख़याल रख रहे थे, 'अनावश्यक प्रभाव' की बात नहीं की जा सकती, पढ़िए सुप्रीम कोर्ट का फैसला

LiveLaw News Network

12 Sep 2019 6:14 AM GMT

  • क़रार अधिनियम – सिर्फ इसलिए कि परिवार के लोग परिवार के वरिष्ठ व्यक्ति का ख़याल रख रहे थे, अनावश्यक प्रभाव की बात नहीं की जा सकती, पढ़िए सुप्रीम कोर्ट का फैसला

    बुधवार को अपने एक फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी भी क़रार को लागू करने में 'अनावश्यक प्रभाव'की बात सिर्फ़ इसलिए नहीं की जानी चाहिए क्योंकि परिवार के लोग अपने परिवार के वृद्ध व्यक्ति का ख़याल रख रहे हैं।

    भाइयों के बीच एक मुक़दमे में यह आरोप लगाया गया कि प्रतिवादी ने अपने मृत पिता पर अनावश्यक प्रभाव डालकर उनसे धोखे से बिक्री का क़रार करा लिया, क्योंकि उसके पिता वृद्ध थे और मानसिक रूप से अस्थिर थे और जो प्रतिवादी के साथ ही रह रहे थे। अदालत ने इस मामले को ख़ारिज कर दिया। हालांकि प्रथम अपीली अदालत ने फ़ैसले को बदल दिया था, जबकि हाईकोर्ट ने इस मामले को दुबारा स्थापित कर दिया।

    न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और इंदिरा बनर्जी की पीठ ने राजा राम बनाम जय प्रकाश के इस मामले की सुनवाई की और इसे ख़ारिज कर दिया। वादी ने आरोप लगाया था कि प्रतिवादी ने अपने पिता पर अनावश्यक प्रभाव डालकर उससे अपने पक्ष में बिक्री का क़रार करवा लिया था।

    सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मसला यह उठाया गया कि जब पिता की शारीरिक स्थिति ठीक नहीं थी और वह मानसिक रूप से अस्थिर थे तो बिक्री का क़रार कैसे कर सकते हैं। दूसरा मामला यह था कि प्रतिवादी ने अपने मृत पिता पर अनावश्यक प्रभाव डालकर अपने पक्ष में बिक्री का क़रार करा लिया क्योंकि पिता वृद्ध थे और मानसिक रूप से अस्थिर थे।

    अदालत ने कहा कि हो सकता है कि सेवा करने के कारण वृद्ध माता-पिता का निर्णय प्रभावित हुआ होगा पर ऐसा नहीं कहा जा सकता कि इस क़रार को करने में सिर्फ़ यही बात प्रभावी रही होगी और इसलिए बिक्री का जो क़रार किया गया वह अस्वीकार्य है। अदालत ने कहा कि क़रार अधिनियम की धारा 16 (इसे साक्ष्य अधिनियम की धारा 111 के साथ पढ़ा जाए) के तहत वादी द्वारा मामले को प्रथम दृष्ट्या स्थापित करने के बाद इसे साबित करने का दायित्व प्रतिवादी पर आ जाएगा।

    पीठ ने कहा,

    "हर जाति, पंथ, धर्म और सभ्य समाज में परिवार के वृद्धों की देखभाल करना एक पवित्र कार्य माना जाता है। पर आज यह एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। संसद ने इसी बात को ध्यान में रखकर माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण अधिनियम, 2007 बनाया। हमारी राय में बदलते समय और सामाजिक मूल्यों को देखते हुए यह निष्कर्ष निकालना कि माँ-बाप की देखभाल करने वाले भाई ने माँ-बाप पर अनावश्यक प्रभाव डाला होगा, अनर्गल निष्कर्ष है और पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में इस पर ग़ौर नहीं किया जा सकता।

    जिस व्यक्ति ने माँ-बाप की देखभाल की उस व्यक्ति पर इस बात को साबित करने का बोझ डालने के अवांछित परिणाम होंगे…क़ानून और ज़िंदगी साथ-साथ चलते हैं। अगर परिवार के कुछ सदस्य परिवार के वरिष्ठों का देखभाल करते हैं और दूसरे अपनी मर्ज़ी से या अपनी बाध्यता के कारण ऐसा नहीं करते हैं तो देखभाल करने वाले व्यक्ति और जिसकी देखभाल हो रही है उनके बीच नज़दीकी होना स्वाभाविक है।"

    बुढ़ापे का मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति की मानसिक अवस्था पूरी तरह ख़राब हो जाती है।

    अदालत ने यह भी कहा कि इस बारे में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता और यह नहीं माना जा सकता कि कोई व्यक्ति वृद्ध है तो उसकी सोचने की शक्ति भी पूरी तरह समाप्त हो गई और वह सठिया गया होगा और उसकी याददाश्त ख़त्म हो गई होगी।

    सिर्फ़ इस आरोप के कि मृत व्यक्ति की मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी, उसके मानसिक अवस्था के बारे में और कोई जानकारी नहीं दी गई है। बढ़ती उम्र का अलग-अलग व्यक्तियों पर उम्र के अलग-अलग पड़ाव पर भिन्न प्रभाव पड़ता है। मृत व्यक्ति ने बाबू राम और मुंशी लाल के पक्ष में जो बिक्री क़रार दो साल पहले 1968 में किया था उस पर अपीलकर्ता ने इस आधार पर कोई आपत्ति नहीं की है कि क़रार करने वाला व्यक्ति तर्क करने की क्षमता खो चुका था क्योंकि उसकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं थी। । इस बात के कोई प्रमाण नहीं हैं कि इन दो वर्षों में उस मृत व्यक्ति की स्थिति में भारी गिरावट आई ।



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