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मुकदमा अगर समझौता, मध्यस्थता से सुलझता है तो कोर्ट फीस का 100 प्रतिशत रिफंड उपलब्ध करवाया जाए, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने की सिफारिश

LiveLaw News Network
8 Sep 2019 11:31 AM GMT
मुकदमा अगर समझौता, मध्यस्थता से सुलझता है तो कोर्ट फीस का 100 प्रतिशत रिफंड उपलब्ध करवाया जाए, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने की सिफारिश
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कर्नाटक उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को राज्य न्यायालय शुल्क अधिनियम में एक धारा में संशोधन करने पर विचार करने की सिफारिश की है, जिससे यह प्रावधान किया जा सके कि यदि किसी मुक़दमे में समझौता, मध्यस्थता (Arbitration), सुलह (Conciliation) और बीच-बचाव (Mediation) के जरिये होता है, तो कोर्ट फीस का 100% रिफंड उपलब्ध कराया जा सके।

मुख्य न्यायाधीश अभय ओका और न्यायमूर्ति मोहम्मद नवाज की खंडपीठ ने अधिवक्ता के. एस. पेरियास्वामी द्वारा दायर याचिका को आंशिक रूप से अनुमति देते हुए कहा "जहां सूट का सेटलमेंट या समापन, लोक अदालत द्वारा दिए गए एक अवार्ड के रूप में होता है, जैसा कि राष्ट्रीय विधिक सेवा अधिनियम, 1987 की धारा 20 और 21 में प्रदान किया गया है, वहां केंद्रीय न्यायालय फीस अधिनियम, 1870 की धारा 16, लागू होगी और कर्नाटक कोर्ट फीस और सूट वैल्यूएशन एक्ट, 1958 की धारा 66 की उप-धारा (1) के होते हुए भी, वाद या कॉउंटरक्लेम, जैसा भी मामला हो, पर अदा की गई कोर्ट फीस का 100% रिफंड उपलब्ध कराया जाएगा।"

राज्य अधिनियम के अनुसार यदि लोक अदालत के अलावा अन्य 3 तरीकों के तहत मुकदमों का निपटारा किया जाता है, तो अदा की गई अदालत की फीस का 75% वापस कर दिया जाता है।

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि, "कई अन्य राज्यों में इस तरह के निपटान के मामले में अदालत की फीस का 100% रिफंड करने का प्रावधान है।" उन्होंने शीर्ष अदालत द्वारा दिए गए, सलेम एडवोकेट्स बार एसोसिएशन तमिलनाडु बनाम भारत संघ के प्रसिद्ध फैसले के पैराग्राफ 63 में की गयी टिप्पणियों की ओर भी अदालत का ध्यान आकर्षित किया। इसके अलावा यह भी कहा गया कि, कोर्ट फीस एक्ट, 1870 (संक्षेप में, 'सेंट्रल कोर्ट फीस एक्ट'), एक सूट पर, जो विवाद के निपटारे के 4 तरीकों में से एक द्वारा निपटाया जाता है, अदा की गई कोर्ट फीस की 100% वापसी के लिए प्रावधान प्रदान करता है।

राज्य ने दलील का विरोध करते हुए कहा, "भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत शक्ति का प्रयोग करते हुए एक रिट कोर्ट, एक विशेष तरीके से कानून में संशोधन करने के लिए विधानमंडल को निर्देश देने के लिए परमादेश की रिट (writ of mandamus) जारी नहीं कर सकती है।" इसलिए उन्होंने यह दलील दी कि मामले में प्रार्थना के रूप में मांगी गयी राहत को रिट अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत स्वीकृति नहीं दी नहीं जा सकती है।

बेंच ने देखा:

सलेम बार एसोसिएशन के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकारों को स्थानीय कानूनों में संशोधन करने और उस प्रावधान को शामिल करने की सिफारिश की है जो केंद्रीय न्यायालय शुल्क अधिनियम की धारा 16 के साथ संगत हो। हमें यहां ध्यान देना चाहिए कि उक्त संहिता की धारा 89 की उप-धारा (1) को शामिल करने की वस्तु/उद्देश्य को देखते हुए, राज्य सरकार को वर्ष 1958 के उक्त अधिनियम में एक प्रावधान को शामिल करने के लिए अनुकूल रूप से विचार करना होगा, जो कि सेंट्रल कोर्ट फीस एक्ट की धारा 16 के साथ pari materia (संगत) हो।

लेकिन प्रधान शासकीय अधिवक्ता यह प्रस्तुत करने में सही हैं, कि एक रिट कोर्ट विधानमंडल को निर्देश नहीं दे सकती है कि वह किसी विशेष तरीके से एक विशेष अधिनियम में संशोधन कर सके।इसने अपने आदेश में कहा:

"हमें यकीन है कि राज्य सरकार इस तथ्य के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई सिफारिश पर विचार करेगी, कि यदि 100% धनराशि रिफंड करने का प्रावधान किया जाता है, तो यह वादियों (litigants) को उक्त संहिता की धारा 89 की उपधारा (1) के तहत प्रदान किए गए विवाद निवारण के वैकल्पिक तरीकों में से एक का सहारा लेने के लिए प्रोत्साहित करेगा।"



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